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________________ गुणपदार्थवाद: न च विभिन्नः संस्कारो बाणादीनामपातहेतुः प्रतीयते, अन्यथा कदाचिदपि तेषां पातो न स्यात्, तत्प्रतिबन्धकस्य वेगस्य सर्वदावस्थानात् । न च मूत्तिमद्वाय्वादिसंयोगोपहतशक्तित्वाद्वगस्य तेषां पतनम् ; प्रथममेव पातप्रसक्तः, तत्संयोगस्य तद्विरोधिनस्तदापि सम्भवात् । न च प्राग्वेगस्य बलीयस्वाद्विरोधिनमपि मूर्त्तद्रव्यसंयोगमपास्य शरं देशान्तरं प्रापयति ; इत्यभिधातव्यम् ; पश्चादप्यस्य बलीयस्त्वानथैव तत्प्रापकत्वप्रसक्त: । न खलु वेगस्य पश्चादन्यथात्वम् ; तथोत्पत्तिकारणाभावात्, तत्समवायिकारणत्वस्येष्वादेः सर्वदाऽविशिष्टत्वात् । न च कर्माख्यं कारणं पश्चाद्विशिष्यते; तस्यापि तुल्यपर्यनुयोगत्वात् । न च प्रभूताकाशप्रदेशसंयोगोत्पादनात् संस्कारप्रक्षयादिषोः पात:, संस्कारस्यै वैशेषिक का कहना है कि बाणादि पदार्थों को लक्ष्य स्थान में पहुंचने तक नहीं गिरने देना संस्कार गुण का कार्य है। किन्तु ऐसा सिद्ध नहीं होता। यदि ऐसा माना जाय तो उन बाणादिका कभी भी पात नहीं हो सकेगा क्योंकि पात का प्रतिबंधक वेग नामा संस्कार सदा मौजूद रहता है । वैशेषिक-मूर्तिमान वायु आदि के संयोग हो जाने से वेग की शक्ति समाप्त होती है अत: बाणादिका पात [गिरना] हो जाता है ? जैन-ऐसा कहो तो लक्ष्य स्थान के पहले ही बाणादि को गिर जाने का प्रसंग होगा, क्योंकि वेगका विरोधी जो वाय आदिका संयोग है वह उस समय भी सम्भव है। वैशेषिक--बात यह है कि बाणादिका वेग पहले बलवान रहता है अतः विरोधी मूर्त्तद्रव्य के संयोग को हटाकर वह वेग बाण को देशांतर में पहुंचा देता है ? जैन-यह कथन असत् है, बाणका वेग जैसे पहले बलवान रहता है वैसे पीछे भी बलवान रहता है अतः उसे बारणादिको देशांतर में आगे आगे पहुंचा देने का प्रसंग आता है ऐसा भी नहीं कि पीछे अन्य प्रकार का वेग होता है। क्योंकि वैसे वेग को उत्पन्न करने का कारण नहीं दिखायी देता है । वेगका समवायी कारण बाणादि में हमेशा समानरूप से मौजूद रहता है, अतः ऐसा नहीं कहना कि उसका विशिष्ट कारण नहीं होने से पीछे वेग अन्यथारूप हो जाता है। कर्म [ क्रिया ] नामा कारण पीछे मिल जाने से वेग में अन्यथापन पाता है ऐसा कहो तो वही पहले के प्रश्नोत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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