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गुणपदार्थवादः
४०१ ततो विभिन्नस्वभावतयोत्पन्नार्थस्यैव 'पृथक' इतिप्रत्ययविषयत्वप्रसिद्धेरलं पृथक्त्वगुणकल्पनया। पृथक्प्रत्ययस्याप्यसाधारणधर्मादेवोपपत्तः यदा ह्य के वस्त्वितरेभ्यो भिन्नं पश्यति प्रतिपत्ता तदा 'एक पृथक्' इति प्रतिपद्यते । यदा तु द्वे वस्तुनीतरेभ्यो विलक्षणकधर्मयोगाद्विभिन्ने पश्यति तदा 'द्वे पृथक्' इति मन्यते । यदा त्वेकदेशत्वादिना धर्मेणेतरेभ्यो बहूनि भिन्नानि पश्यति तदा 'एतान्येतेभ्यः पृथक्' इति प्रतिपद्यते, यथा रूपादयो द्रव्यात्पृथगिति ।
संयोगस्तु समवायनिराकरणप्रघट्टके प्रतिषेत्स्यते । तदभावात् 'प्राप्तिपूविका अप्राप्तिविभागः' इत्यपि निरस्तम् । न हि प्राग्भाविसान्तररूपतापरित्यागेन निरन्तररूपतयोत्पन्नवस्तुव्यतिरेकेणान्यः
भी परस्पर व्यावृत्त स्वरूप वाले हैं अतः इनमें पृथक्त्व गुण का आधारपना नहीं है ।
घटादि पदार्थों में पृथक्त्व का अाधारपना सिद्ध नहीं होने से ऐसा मानना चाहिए कि-भिन्न भिन्न स्वभावपने से उत्पन्न होने के कारण ही "पृथक् है" ऐसा प्रतिभास होता है अतः पृथक्त्व गुण की कल्पना व्यर्थ है। वस्तुओं में जो असाधारण धर्म होता है उसीसे पृथक्त्वपने की प्रतीति हुआ करती है, जब कोई पुरुष एक वस्तु को इतर वस्तुओं से भिन्नरूप देखता है तब “एक पृथक् है" ऐसा जानता है, तथा जब दो वस्तुओं को इतर वस्तुओं से विलक्षण एक धर्म के योग से विभिन्न देखता है तब दो वस्तु पृथक् हैं' ऐसा जानता है । इसीप्रकार जब एक देश में रहना इत्यादि धर्म द्वारा इतर वस्तुओं से बहुतसी वस्तुओं को भिन्नता देखता है तब ये वस्तु इन वस्तुओं से पृथक हैं ऐसा जानता है जिसप्रकार रूप, रस इत्यादि को द्रव्य से पृथकरूप जानता है" अर्थात् जैसे रूपादि वस्तु से अलग नहीं है तो भी यह घट का रूप है इत्यादि पृथक् व्यपदेश या प्रतीति होती है, वैसे ही घट पट आदि पदार्थ का स्वरूप स्वयं ही असाधारण या पृथक् है अतः उसीसे पृथक्पने का प्रतिभास होता है, उसके लिए पृथक्त्व गुण की कोई आवश्यकता नहीं है।
वैशेषिक द्वारा प्रतिपादित संयोग नामा गुण का खण्डन तो आगे समवाय निराकरण के प्रकरण में होने वाला है । संयोग गुण के निषेध से "प्राप्त होकर अप्राप्त होना विभाग है" ऐसा विभाग का लक्षण भी खण्डित हुआ समझना चाहिए। वस्तु की पहले की जो सांतररूपता [भिन्नरूपता] थी उसका त्याग होकर निरंतररूपता से [अभिन्नरूपता से] उत्पन्न होना यही संयोग है, इससे अन्य संयोग संयुक्त प्रतीति का
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