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________________ ४०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे संयोगः संयुक्तप्रत्ययविषयोनुभूयते। अविच्छिन्नोत्पत्तिकमेव हि वस्तु निरन्तरप्रत्ययविषयः निरन्तरोपरचितदेवदत्तयज्ञदत्तगृहवत् । न खलु गृहयोः परेणापि संयोगगुणाश्रयत्व मिष्टम् , निर्गुणत्वाद्गुणानाम्, तयोश्च संयोगात्मकत्वेन गुणत्वात् । नापि विच्छिन्नोत्पन्नवस्तुव्यतिरेकेणान्यो विभागो विभक्तप्रत्ययविषयो हिमवद्विन्ध्यवत् । न हि तयोविभागाश्रयत्वं प्राप्तिपूविकाया अप्राप्तेविभागलक्षणायास्तयोरभावात् । प्रयोग :-या संयुक्ताकारा बुद्धिः सा भवत्परिकल्पितसंयोगानास्पदवस्तुविशेषमात्रप्रभवा यथा 'संयुक्तौ प्रासादौ' इति बुद्धिः, संयुक्ताकारा च 'चैत्र: कुण्डली' इत्यादिबुद्धिरिति । यद्वा, याऽनेकवस्तुसन्निपाते सति समुत्पद्यते सा भवत्परिकल्पितसंयोगविकलानेकवस्तुविशेषमात्रभाविनी यथाऽविरलाऽवस्थिताऽनेकतन्तुविषया बुद्धिः, तथा च विमत्यधिकरणभावापन्ना संयुक्तबुद्धिरिति । विषय अनुभव में नहीं आता है। अविच्छिन्नरूप से उत्पन्न हुई वस्तु निरंतर ज्ञान का विषय हुआ करती है, जैसे निरंतर-अन्तराल रहित बनाये गये देवदत्त और यज्ञदत्त के गृह निरन्तर ज्ञान के विषय होते हैं, इन निरंतररूप दो गृहों में संयोग नामा गुण का आश्रय मानना वैशेषिक को भी इष्ट नहीं है क्योंकि गुण निर्गुण होते हैं, और उक्त गृह संयोगात्मक होने से गुणरूप है । विच्छिन्नरूप से उत्पन्न हुई वस्तु ही विभागस्वरूप है, इससे अन्य विभाग नहीं है, विभक्त ज्ञानका विषय भी यही है, जैसे विन्ध्याचल और हिमाचल विच्छिन्नरूप से स्थित एवं विभक्त ज्ञानका विषय है। उक्त पर्वतों में विभाग गुणका आश्रय संभव नहीं है क्योंकि इनमें प्राप्ति होकर अप्राप्त होना रूप विभाग गुणका लक्षण नहीं पाया जाता है। जिसप्रकार विन्ध्याचल और हिमाचल में विभाग गुण नहीं होकर भी विभक्त का ज्ञान होता है वैसे घट पटादि में भी होता है। संयोग गुणका निरसन करने वाला अनुमान संयुक्ताकार जो बुद्धि होती है वह आप वैशेषिक द्वारा कल्पित संयोग के कारण न होकर वस्तु विशेष मात्र से ही होती है, जैसे “ये दो महल मिले हुए हैं संयुक्त हैं इसप्रकार की बुद्धि उन महलों के विशिष्ट स्थित होने के कारण ही होतो है, "चैत्र कुण्डली कुण्डल से युक्त है" इत्यादि बुद्धि भी संयुक्ताकार स्वरूप है अतः संयोग गुण निमित्तक न होकर वस्तु विशेष से ही होती है, दूसरा अनुमान-जो बुद्धि अनेक वस्तुओं के सन्निपात के होने पर उत्पन्न होती है वह आप वैशेषिक द्वारा परिकल्पित संयोग गुण से न होकर अनेक वस्तु विशेष मात्र से होती है, जैसे अविरलरूप से अवस्थित अनेक तन्तुषों को विषय करने वाली बुद्धि अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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