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________________ गुणपदार्थवादः ३६६ नास्ति तथा 'ट्यणुके एवाणुत्व ह्रस्वत्वे मुख्येऽन्यत्र भाक्ते' इति कस्यचित्प्रतिपत्तिः । प्रक्रियामात्रस्य च सर्वशास्त्रेषु सुलभत्वान्नातो विवाद निवृत्तिः। __प्रापेक्षिकत्वाच्च परिमाणस्यागुणत्वम् । न हि रूपादेः सुखादेर्वा मुणस्यापेक्षिको सिद्धिः । योपि नीलनीलतरादेः सुखसुखतरादेर्वाऽऽपेक्षिको व्यवहारः सोऽपि तत्प्रकर्षापकर्षनिबन्धनो न पुनर्गुणस्वरूपनि बन्धनः । ततो ह्रस्वदीर्घत्वादेः संस्थानविशेषाद्वयतिरेकाभावात्कथं गुणरूपता? तद्विशेषस्यापि कथञ्चिभेदाभिधाने व्यस्रचतुरस्रादेरपि भेदेनाभिधानानुषङ्गात्कथं तच्चतुर्विधत्वोपवर्णनं संशोभेतेति ? यच्चोक्तम्-पृथक्त्वं घटादिभ्योर्थान्तरं तत्प्रत्ययविलक्षणज्ञानग्नाह्यत्वात्सुखादिवत् ; तदप्युक्ति के सभी को हो रहा है, उसप्रकार द्वयणुक में ही अणुत्व ह्रस्वत्व मुख्य है, बेर आदि में गौण है ऐसी मुख्य गौरण की प्रतीति किसी को भी नहीं पा रही है। अपनी प्रक्रिया मात्र बताना तो वह सभी के शास्त्रों में सुलभ है किन्तु उससे विवाद समाप्त नहीं होता है। परिमाण अपेक्षा से हुप्रा करता है अर्थात् यह छोटा है यह बड़ा है इत्यादि प्रतीति एक दूसरे पदार्थों की अपेक्षा लेकर होती है, यह अपेक्षा जनित है अतः अगुण है गुण नहीं । रूप रस इत्यादि गुण या सुखादि गुण इस तरह अपेक्षा जनित नहीं हुया करते हैं, रूपादि गुणों में यह नील है यह इससे अधिक नीलतर है इत्यादि अपेक्षा लेकर व्यवहार होता है एवं यह भोजन का सुखानुभव विशेष है इससे अधिक मिष्ठान्न भोजन का सुखानुभव है इत्यादि अथवा विषयजन्य सुखानुभव से वैराग्यजन्य सुखानुभव अधिक है इत्यादि आपेक्षिक व्यवहार होता है वह तो प्रकर्षता और अपकर्षता के कारण होता है, गुण के स्वरूप के कारण नहीं होता है। अतः यह निश्चय होता है कि ह्रस्व दीर्घत्वादि संस्थान विशेष मात्र है इससे अतिरिक्त कुछ नहीं है, फिर इसको गुणपना किसप्रकार सिद्ध हो सकता है ? यदि इस संस्थान विशेष को हो किसी प्रकार से भेद करके पृथक् नामा धरा जाय तो त्रिकोण, चौकोण इत्यादि संस्थान विशेषों को भी भिन्न भिन्न गुणरूप मानना होगा फिर परिमाणके चार भेद बताना किसतरह सिद्ध होगा ? पृथक्त्व नामा गुण घट पट आदि से अतिरिक्त है, क्योंकि घटादि के ज्ञान से विलक्षण ज्ञान द्वारा ग्राह्य है, जैसे सुखादि विलक्षण ज्ञान द्वारा ग्राह्य है । ऐसा वैशेषिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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