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________________ ३९८ प्रमेयकमलमार्तण्डे 'माला माला' इत्यनुगतप्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात्, जातावऽपरापरजातेरनुपपत्तेः । न चौपचारिकोयं प्रत्ययोsस्खलवृत्तित्वात् । न हि मुख्यप्रत्ययाविशिष्टस्यौपचारिकत्वं युक्तमतिप्रसङ्गात् । अत एव मालादिषु महत्त्वादिप्रत्ययोपि नौपचारिकः । ततो यथा स्वकारणकलापात्प्रासादादयो महदादिरूपतयोत्पन्नास्तत्प्रत्ययगोचरास्तथा घटादयोपोत्यलमर्थान्तरभूतपरिमाणपरिकल्पनया। यदप्युक्तम्-'बदरामलकादिषु भाक्तोऽणुव्यवहारः' इत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; मुख्यगौरण प्रविभागस्यात्राप्रमाणत्वात् । न खलु यथा सिंहमाणवकादिषु मुख्यगौणविवेकप्रतिपत्तिः सर्वेषाम विगाने स्वयं गणरूप है] तथा बहुतसी प्रासाद माला जहां खड़ी हो वहां "माला है यह भी माला है" [महलों की अनेक पंक्तियां] ऐसा अनुगत प्रत्यय नहीं हो सकेगा ? क्योंकि माला को जाति स्वभाव रूप माना, अब उस जाति में दूसरी जाति तो हो नहीं सकती? यदि कहा जाय कि बहुतसी प्रासाद मालाओं में जो अनुगतप्रत्यय होता है वह औपचारिक है, तो भी ठीक नहीं क्योंकि यह प्रत्यय भी सत्यप्रत्यय के समान अस्खलतरूप से होता है [बाधारहित होता है, जो अनुमत प्रत्यय मुख्य के समान ही हो रहा है उपको औपचारिक कहना अयुक्त है, अन्यथा अतिप्रसंग आयेगा [मुख्य अनुगत प्रत्ययगौ है यह भी गौ है, इत्यादि को भी प्रौपचारिक मानना होगा] इसलिये माला आदि में होने वाला महान् दीर्घ आदि प्रत्यय [ज्ञान] औपचारिक नहीं कहला सकता । अत: जिसप्रकार प्रासादादि वस्तु अपने कारण सामग्री से उत्पन्न होती हुई महान् दीर्घ इत्यादि रूप ही उत्पन्न होती है वही दीर्घता या महत्व का ज्ञान कराती है, ऐसा मानते हैं, उसीप्रकार घट पट इत्यादि पदार्थ स्वकारण से उत्पन्न होते हुए महत्, दीर्घ, ह्रस्व इत्यादि परिमाण वाले स्वयं उत्पन्न होते हैं उनमें महत् आदि का प्रत्यय स्वनिमित्तक ही है ऐसा सिद्ध होता है, इस प्रत्यय के लिये परिमाण गुण की कोई आवश्यकता नहीं है। परिमाण गुण का कथन करते हुए वैशेषिक ने कहा था कि आकाश, परमारणु आदि में जो महान्, अणु आदि का प्रतिभास होता है वह तो मुख्य है और बेर आंवला आदि में जो अरणु महत् का प्रतिभास है वह तो औपचारिक है इत्यादि, सो यह सब प्रयुक्त है, क्योंकि आपका यह मुख्य और गौण का विभाग प्रामाणिक नहीं है । जिस प्रकार सिंह और माणवक ग्रादि में मुख्य सिंह और गौण सिंह का विभाग बिना विवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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