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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे जननसामर्थ्य मिष्यते तर्हि तत एवादृष्टस्यैव तत्संयोगनिरपेक्षस्य तत्सामर्थ्यमस्तु । दृश्यते हि हस्ताश्रयेणायस्कान्तादिना स्वाश्रयासंयुक्तस्य भूभागस्थितस्य लोहादेराकर्षणमित्यलमतिप्रसंगेन । ३७४ यदप्युक्तम्-सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशैस्तदात्मा सावयवः स्यात्, तथा च घटादिवत्समानजातीयावयवारभ्यत्वम्, समानजातीयत्वं चावयवानामात्मत्वाभिसम्बन्धादित्येक त्रात्मन्यनंतात्मसिद्धिः, यथा चावयवक्रियातो विभागात्संयोगविनाशाद्घटविनाशः तथात्मविनाशोपि स्यात्; इत्यप्य वैशेषिक – अपने अपने हेतु से बने हुए जो प्रदृष्ट तथा परमाणु संयोग हैं इन दोनों में ऐसी ही सामर्थ्य है कि वे दोनों साथ रहकर ही कार्य को पैदा करते हैं ? जैन - तो फिर उसी कारण से परमाणुसंयोग की अपेक्षा के बिना अदृष्ट ही श्राद्यकर्म को उत्पन्न करने की सामर्थ्य युक्त है ऐसा मानना चाहिए । ऐसा उदाहरण भी देखा जाता है कि - हाथ के आश्रय युक्त अयस्कांत [चुम्बक ] अपने प्राश्रय में जो संयुक्त नहीं है [ अलग है ] ऐसे भूमि पर स्थित लोह का आकर्षण कर लेता है । इन हेतु तथा उदाहरणों से सिद्ध होता है कि अपने में संयुक्त नहीं हुए पदार्थ का आकर्षण भी हो सकता है अतः श्रात्माको सर्वगत नहीं मानेंगे तो द्वीप द्वीपांतरवर्त्ती पदार्थों को आत्मा कैसे प्राप्त कर सकेगा । इत्यादि शंकाओं का समाधान उपर्युक्त रीत्या हो जाता है, इससे विपरीत श्रात्माको सर्वगत मानने से उक्त कार्य की व्यवस्था सिद्ध नहीं होती अतः आत्माको सर्वगत मानने का पक्ष छोड़ देना चाहिए | वैशेषिक – जैन आत्माको व्यापक बतलाते हैं, आत्मा शरीर में प्रवेश करता - है तथा निकल भी जाता है सो यह कथन सदोष है कैसे सो बताते हैं- शरीर श्रवयव सहित होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करेगा तो उसके एक एक प्रदेश में प्रवेश करेगा अतः स्वयं भी सावयव बन जायगा, फिर उस आत्माके अवयवों का निर्माण होने के लिये घटादिके समान अपने सजातीय अवयव चाहिए, अवयवों में सजातीयपना भी प्रात्मत्व के अभिसंबंध से ही हो सकेगा, इसतरह तो एक ही आत्मामें अनंत श्रात्मा की सिद्धि हो जायगी ? तथा दूसरी बात यह होगी कि जैसे घटके अवयवोंमें क्रिया होने से विभाग, विभाग से संयोगका विनाश और संयोगके विनाशसे घटका नाश हो जाता है वैसे आत्मा में भी यह सब संयोग विभाग, विनाश की प्रक्रिया होवेगी और आत्माका भी नाश हो जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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