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________________ प्रात्मद्रव्यवाद। ३७३ ननु ये तत्संयोगास्तदऽदृष्टापेक्षास्त एव स्वसंयोगिनां परमाणूनामाद्यं कर्म रचयन्तीति चेत् ; अथ केयं तददृष्टापेक्षा नामएकार्थसमवाय :, उपकारो वा, सहाद्यकर्मजननं वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; सर्वपरमाणुसंयोगानां तददृष्ट कार्थसमवायसद्भावात् । उपकारः, इत्यप्ययुक्तम्; अपेक्ष्यादपेक्षकस्यासम्बन्धानवस्थानुषंगेणोपकारस्यवासम्भवात् । सहाद्यकर्मजननम् ; इत्यप्यसत्; तयोरन्यतरस्यापि केवलस्य तज्जननसामर्थ्य परापेक्षायोगात् । यदि पुन: स्वहेतोरेवादृष्टसंयोगयोः सहितयोरेव कार्य वैशेषिक-प्रात्माके अदृष्ट की अपेक्षा लेकर शरीर बनता है अतः परमाणुओं का संयोग भी अदृष्ट की अपेक्षा से होता है अपने अपने अदृष्ट संबंधी जो परमाणु हैं वे ही शरीरकी उत्पत्ति जहां होती है वहां पर आते हैं, इसलिये महत् शरीर बन जाने का प्रसंग नहीं पाता है ? जैन-अदृष्ट की अपेक्षा किसे कहते हैं, एकार्थ समवाय-एक प्रात्मामें अदृष्ट का समवाय होना, उपकार होना या साथ में पाद्यकर्म उत्पन्न होना ? प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि प्रात्मा व्यापक है अतः प्रात्मामें एकार्थ समवाय से संबद्ध हुआ जो अदृष्ट है उसके साथ सम्पूर्ण परमाणों का संयोग रहेगा फिर वही पहले का दोष होगा कि शरीर के माप का कोई अवस्थान नहीं रहता। उपकार को अदृष्टको अपेक्षा कहते हैं ऐसा पक्ष भी प्रयुक्त है, क्योंकि यहां जिसको अपेक्षा है वह और अपेक्षा करने वाला इन दोनों में संबंध नहीं होने से अनवस्था दोष आता है अतः उपकार होना असंभव है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-जिसकी अपेक्षा होती है ऐसा अदृष्ट तो अपेक्ष्य है और अपेक्षाको जो करता है वह अपेक्षक यहां पर परमाणुअोंका संयोग है, अदृष्ट रूप अपेक्ष्य द्वारा अपेक्षक परमाणु संयोगका जो उपकार किया जायगा वह उससे भिन्न है कि अभिन्न है, अभिन्न है तो उपकार भी अदृष्ट जन्य मानना होगा। तथा वह उपकार भिन्न है तो संबंध नहीं रहता, उसके संबंध के लिये अन्य की अपेक्षा होगी, इसतरह अनवस्था आ जायगी। अतः उपकार होनेको अदृष्टापेक्षा कहते हैं ऐसा पक्ष असत् ठहरता है। सह आद्यकर्म जनन-अदृष्ट और परमाणुसंयोग दोनों साथ ही प्राधकर्म को पैदा करने को अदृष्ट की अपेक्षा कहते हैं ऐसा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन दोनों में से किसी एक में आद्यकर्म को उत्पन्न करने की सामर्थ्य स्वीकार करने पर दूसरे की अपेक्षा होना अशक्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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