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________________ ३७२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे स्थात्; स्यादेवं यदि 'यद्येन संयुक्त ं तं प्रति तदेवोपसर्पति' इत्ययं नियमः स्यात् । न चास्ति श्रयस्कांतं प्रत्ययसस्तेनाऽसंयुक्तस्याप्युपसर्पणोपलम्भात् । यस्य चात्मा सर्वगतः तस्यारन्धकार्यैरन्यैश्च परमाणुभिर्युगपत्संयोगात्तथैव तच्छरीरारम्भं प्रत्येकमभिमुखीभूतानां तेषामुपसर्पणमिति न जाने कियत्परिमाणं तच्छरीरं स्यात् । कर्म जो शरीरारंभक परमाणुत्रों का शरीर के उत्पत्ति स्थान पर गमन करना है वह भी नहीं होवेगा, उसके प्रभाव होने से अन्त्य संयोग का अर्थात् शरीर निष्पत्ति का समाप्तिकाल और उसके बाद बना जो शरीर है उस शरीर का आत्माके साथ सम्बन्ध होना यह सब कार्य नहीं हो सकेगा और जब शरीर का सम्बन्ध ही आत्मा में नहीं रहेगा तो वह ग्रात्मा अनुपाय सिद्ध - बिना उपाय के सिद्ध हुआ, फिर तो सर्वदा श्रात्मा मुक्त रहेगा । जैन - श्रात्माके सर्वदा मोक्ष स्वरूप रहने का प्रसंग तब प्राता जब ऐसा नियम बनाते कि जो जिससे संयुक्त है उसके प्रति वही आकृष्ट होता है या निकट आता है अर्थात् जिसके साथ सम्बन्ध होना है वह निकटवर्ती संयुक्त हो ऐसा नियम नहीं है अतः सर्वगत नहीं होकर भी आत्मा के साथ शरीर योग्य परमाणु आदि सम्बद्ध होते हैं । श्रात्मा के साथ परमाणु संयुक्त नहीं होकर भी संबंध को कैसे प्राप्त होते हैं उसके लिये चुम्बक का उदाहरण है कि चुम्बक लोहे से असंयुक्त है, तो भी लोहा उसके प्रति आकृष्ट होता है । जिस वैशेषिक मत में आत्माको सर्वगत माना है उसके यहां शरीर का संबंध होना आदि कुछ भी सिद्ध नहीं होगा, जिन परमाणुत्रों से शरीर निर्माण होना है वे तथा अन्य बहुत से परमाणु इन सबका एक साथ आत्माके साथ संयोग रहेगा, तथा उस आत्मा के शरीर को बनाने के संमुख हुए जो परमाणु हैं वे भी पहले जिन्होंने शरीर निर्माण का प्रारंभ किया है उनके निकट पहुंच जायेंगे और इसतरह न जाने कितना परिमाणवाला वह शरीर बनेगा । अभिप्राय यह है कि प्रात्मा सर्वत्र है तो उसके साथ सब तरह के परमाणुको संयुक्तपना होने से उस आत्माका जो शरीर बनेगा उसके परिमाणका कोई अवस्थान नहीं रहेगा । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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