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________________ प्रात्मद्रव्यवादः ३६५ मूतत्वेपि सर्वगतत्वाभावात् । द्वितीयपक्षे तु किमसर्वगतद्रव्यं भवतां प्रसिद्धं यत्परिमाणं मूत्तिवर्ण्यते ? घटादिकमिति चेत् ; कुतस्तत्तथा ? तथोपलम्भाच्चेत् ; किं पुनरसी भवतः प्रमाणम् ? तथा चेत् ; तद्वदात्मनोपि स एवासर्वगतत्वं प्रसाधयतीति मूतत्वम्, अतः 'प्रमूतत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः । तदसाधने न प्रमाणम्-'लक्षणयुक्ते बाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात्" [प्रमाणवातिकालं०] इति न्यायात् । तथा चातो घटादावप्यसर्वगतत्वमतिदुर्लभम् । शक्यं हि वक्तुम्-'घटादयः सर्वगता द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वादाकाशवत्' इति । पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनं हेतोश्चासिद्धिः उभयत्र समाना। अनैकान्तिकता होगी, क्योंकि मन द्रव्य एवं रूपादिमान रहित अमर्त्त होकर भी सर्वगत नहीं है, अतः अमूर्त द्रव्य होने से प्रात्मा सर्वगत है ऐसा अनुमान गलत होता है । द्वितीय पक्ष कहो तो आपके सिद्धांत में असर्वगत द्रव्य कौनसा है जिसके कि परिमाण रूप मूर्ति कही जाती है ? घटादि को असर्वगत द्रव्य कहते हैं ऐसा कहो तो पुनः प्रश्न होता है कि घटादि असर्वगत क्यों है ? आप कहो कि असर्वगतपने से ही इनकी उपलब्धि हुआ करती है अतः वैसा मानते हैं, इस पर हम जैन पूछते हैं कि आप वैशेषिक को वैसी उपलब्धि होना क्या प्रमाणभूत है ? यदि प्रमाणभूत है तो जैसे घटादि की असर्वगतत्व की उपलब्धि घटादिको असर्वगत सिद्ध कर देती है, वैसे प्रात्मा भी असर्वगतरूप उपलब्ध होता है अतः उसे प्रमाणभूत मानकर उस हेतु से आत्माको असर्वगत स्वीकार करना चाहिए, और आत्मा असर्वगत है तो मूर्त भी कहलायेगा इसतरह "अमूर्त त्वात्" हेतु असिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि आत्मा में जो असर्वगतपने की उपलब्धि हो रही है वह आत्मा को असर्वगतरूप सिद्ध नहीं करती, तो उस उपलब्धि को प्रमाणभूत नहीं मान सकेंगे क्योंकि "लक्षणयुक्ते बाधासंभवे तत् लक्षण मेव दूषितं स्यात्” प्रमाण का लक्षण जिसमें मौजूद है ऐसे प्रमाण में यदि बाधा पाती है तो समझ लेना चाहिए कि वह लक्षण ही सदोष है, ऐसा न्याय है । तथा यदि आत्मा में उपलब्धि के अनुसार असर्वगतपना स्वीकार नहीं किया तो घट आदि पदार्थों का असर्वगतपना भी सिद्ध नहीं होवेगा, कोई कह सकता है कि घटादि पदार्थ सर्वगतव्यापक हैं, क्योंकि द्रव्य होकर अमूर्त हैं, जैसे आकाश अमूर्त है । पक्ष में प्रत्यक्ष बाधा पाना एवं हेतु प्रसिद्ध होना इत्यादि दूषण तो दोनों जगह घटादि और आत्मा में समान ही पायेंगे । भावार्थ यह है कि जैसे घट आदि पदार्थों में असर्वगतत्व की प्रतीति होती है वैसे आत्मा में भी होती है, फिर घटादिको तो असर्वगत मानना और प्रात्माको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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