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________________ प्रमेयक मलमार्त्तण्डे नित्यत्वं च सर्वथा, कथञ्चिद्वा विवक्षितम् ? सर्वथा चेत्; पुनरपि विशेषणासिद्धत्वम् । कथञ्चिच्चेत्; घटादिनानेकान्तः, तस्य कथञ्चिन्नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वेपि विभुत्वाभावात् । ३६४ यदप्युक्तम्-सर्वगत श्रात्मा द्रव्यत्वे सत्यमूर्त्तत्वादाकाशवत् । 'द्रव्यात्' (द्रव्यत्वात् ) इत्युच्यमाने हि घटादिना व्यभिचार:, तत्परिहारार्थम् 'अमूर्त्तत्वात्' इत्युक्तम् । 'प्रमूत्तस्वात्' इत्युध्यमाने च रूपादिगुणेन गमनादिकर्मणा वानेकान्तः, तन्निवृत्त्यर्थं 'द्रव्यत्वे सति' इत्युक्तम् । तदप्यसमीचीनम् ; यतोऽमूर्त्तत्वं मूर्त्तत्वाभावः तत्र किमिदं मूर्त्तत्वं नाम यत्प्रतिषेधोऽमूर्त्त एवं स्यात् ? रूपादिमत्त्वम्, सर्वगतद्रव्यपरिमाणं वा ? प्रथमपक्षे मनसानेकान्तः; तस्य द्रव्यत्वे सत्य बुद्धिका अधिकरणभूत जो द्रव्य है उसे आप नित्य कह रहे हैं सो नित्यपना कौनसा विवक्षित है सर्वथा नित्यत्व या कथंचित् नित्यत्व ? सर्वथा कहो तो वही विशेषण प्रसिद्ध होने का दोष आयेगा, क्योंकि सर्वथा नित्यपना सिद्ध नहीं है । कथंचित् नित्यत्व विवक्षित है ऐसा कहो तो घटादि के साथ व्यभिचार आयेगा, क्योंकि घटादि पदार्थ कथंचित् नित्य होकर हमारे द्वारा उपलब्ध होने योग्य गुणका अधिष्ठान हैं किंतु उनमें साध्य जो व्यापकत्व है वह है नहीं, श्रतः साध्य के अभाव में हेतु के रह जाने से हेतु कान्तिक होगा । वैशेषिक — आत्माको व्यापक सिद्ध करनेवाला और भी अनुमान है, 'सर्वगतः आत्मा द्रव्यत्वे सति मूर्त्तत्वात्' आकाशवत्, आत्मा सर्वगत है, क्योंकि वह द्रव्य होकर अमूर्त है, जैसे आकाश सर्वगत है । " द्रव्यत्वात्” इतना मात्र हेतु देते तो घटादि के साथ व्यभिचार होता ग्रतः उसके परिहार के लिये "अमूर्त्तत्वात्" ऐसा कहा है । तथा " ग्रमूर्त्तत्वात् " इतना हेतु का कलेवर रखते तो रूपादिगुण एवं गमनादि कर्म के साथ व्यभिचार होता [ क्योंकि हम वैशेषिक रूपादिगुण आदि को अमूर्त्त मानते हैं ] अतः उसके परिहार के लिये " द्रव्यत्वे सति” ऐसा विशेषण प्रयुक्त किया है, इस तरह निर्दोष अनुमान से आत्मा सर्वगत सिद्ध होता है ? जैन - यह कथन असमीचीन है, मूर्त्तत्व के प्रभाव को अमूर्त्तत्व कहते हैं उसमें मूर्त्तत्व किसे कहना जिसके कि प्रतिषेधरूप प्रमूर्त्तत्व होता है । रूपादिमानपना मूर्त्तत्व है अथवा सर्वगत द्रव्य का परिमाण मूर्त्तत्व है ? प्रथम पक्ष में मनके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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