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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे त्रान्यकारणत्वकल्पने भवतोऽनवस्थातो मुक्तिः स्यात् । श्रथांजनादिकमदृष्टसहकारि तत्कारणं न केवलम् ; हन्तेवं सिद्धमदृष्टवदञ्जनादेरपि तत्कारणत्वम् । ततः सन्देह एव किं ग्रासादिवत्प्रयत्नसधर्मणाकृष्टाः पश्वादयः किं वा स्त्र्यादिवदञ्जनादिसघर्मरणा तत्संयुक्तेन द्रव्येरण' इति । परिस्पन्दमानात्म प्रदेशव्यतिरेकेण ग्रासाद्याकर्षणहेतोः प्रयत्नस्यापि तद्विशेषगुणस्य परं प्रत्यसिद्धेः साध्यविकलता दृष्टान्तस्य । ३५२ यच्चोक्तम्- 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्त:' इति ; तत्र देवदत्तशब्दवाच्यः कोर्थः - शरीरम्, आत्मा, तत्संयोगो वा, श्रात्मसंयोगविशिष्टं शरीर वा, शरीरसंयोगविशिष्ट आत्मा वा शरीरसंयुक्त श्रात्मप्रदेशो माने और अन्य किसी कारण की कल्पना करे तो श्राप वैशेषिक के अनवस्था दोष से छुटकारा नहीं होवेगा । अर्थात् अंजन साक्षात् कारण दिखाई देता है तो भी दूसरे कारण की कल्पना करते हैं तो उसके आगे अन्य कारण की कल्पना भी संभव है और इस तरह पूर्व पूर्व कारण का परिहार करके अन्य अन्य कारण की कल्पना बढ़ती ही जायगी । वैशेषिक – स्त्री आकर्षण में जो अंजनादि कारण देखा जाता है वह प्रदृष्ट का सहकारी कारण है केवल अंजनमात्र कारण नहीं है । जैन – आपने तो प्रदृष्ट के समान अंजनादिको भी आकर्षित होने का कारण मान लिया ? और इसतरह जब उभय कारण माने तब संदेह होगा कि देवदत्त के प्रति पशु प्रादिक जो प्राकृष्ट हुए वे ग्रासादि के समान प्रयत्न सदृश गुण द्वारा आकृष्ट हुए हैं या कि स्त्री आदि के समान नेत्रांजन सदृश द्रव्य से संयुक्त हुए द्रव्य द्वारा आकृष्ट हुए हैं । आप वैशेषिक आत्मा में प्रयत्न नामा विशेष गुण को मानते हैं किन्तु हम जैन के प्रति यह प्रसिद्ध है, क्योंकि हलन चलन रूप प्रात्म प्रदेशों की क्रिया को छोड़कर अन्य कोई प्रयत्न नामा गुण नहीं है जो ग्रासादि के आकर्षण का हेतु हो । अतः ग्रासादि का दृष्टांत साध्यविकल है । " देवदत्त के पास पशु आदि आते हैं" इस वाक्य में देवदत्त शब्द से कौनसा पदार्थ लेना शरीर या आत्मा, अथवा उसका संयोग, आत्मसंयोग से विशिष्ट शरीर, शरीरसंयोग से विशिष्ट आत्मा अथवा शरीर से संयुक्त आत्मा के प्रदेश । इन छहों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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