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________________ प्रात्मद्रव्यवादः ३५१ न चांजनादौ सत्यप्यविशिष्टे तद्वतः सर्वान्प्रतिस्त्र्याद्याकर्षणम्, ततोऽवसीयते तदविशेषेपि यद्व कल्यात्तन्न स्यात्तदपि तत्कारणं नांजनादिमात्रम् ; इत्यप्यपेशलम् ; प्रयत्न कारणेपि समानत्वात् । न खलु सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादयः समुपसर्पन्ति तदपहारादिदर्शनात् । ततोऽत्राप्यन्यत्कारणमनुमीयताम्, अन्यथा न प्रकृतेप्यविशेषात् । प्रजनादेश्च स्व्याद्याकर्षणं प्रत्यकारणत्वे घटादिवत्तथिनां तदुपादानं न स्यात् । उपादाने वा सिकतासमूहात्तैलवन्न कदाचित्ततस्तत्स्यात् । न च दृष्टसामर्थ्यस्यांजनादेः कारणत्वपरिहारेणा वैशेषिक-स्त्री आदि को आकृष्ट करने के लिये मात्र अंजनादि को कारण माना जाय तो अंजनादि युक्त सभी पुरुषों के स्त्री आदि का आकर्षण होता। किन्तु ऐसा नहीं है, अजनादि कारण समान रूप से होते हुए भी अंजनधारी सभी पुरुषों के प्रति स्त्री आदि का आकर्षण नहीं देखा जाता, अत: निश्चय होता है कि अन्जनादि साधारण कारण समान रूप से मौजूद होते हुए भी जिसके नहीं रहने से स्त्री आदि का आकर्षण नहीं हुआ वह भी आकर्षण का कारण [अदृष्ट] है. मात्र अन्जनादि नहीं ? जैन-यह कथन असुन्दर है, प्रयत्न रूप कारण के विषय में भी इस तरह कह सकते हैं, सभी प्रयत्नशील व्यक्ति के प्रति ग्रासादिक निकट नहीं पाते, बीच में भी उनका अपहरण देखा जाता है, अतः ग्रासादि के आकर्षण का कारण प्रयत्न मात्र न होकर अन्य भी है ऐसा अनुमान करना होगा यदि ऐसी बात इष्ट नहीं है तो अंजनादि द्रव्य रूप कारण में दूसरे अदृष्ट प्रादि कारण का अनुमान नहीं करना चाहिये उभयत्र कोई विशेषता नहीं है । दूसरी बात यह है कि स्त्री आदि को अपने प्रति आकर्षित करने के लिये अंजनादिद्रव्य कारण नहीं होते तो स्त्री आदि के इच्छुक पुरुष अंजनादि का ग्रहण नहीं करते, घटादि के समान अर्थात् जैसे घटादि के इच्छुक पुरुष घटादि की प्राप्ति के लिये अंजनादिका प्रयोग नहीं करता है, वैसे स्त्री को आकर्षित करने के लिये भी उसका उपयोग नहीं करते अथवा यदि अंजनादिको ग्रहण करने पर भी उससे स्त्री का प्राकर्षण कभी भी नहीं होना चाहिए जैसे-वालु की राशि से कभी भी तेल नहीं निकलता है । साक्षात् जिस अंजनादिकी सामर्थ्य स्त्री आकर्षण में देखी जाती है उसको कारण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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