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________________ प्रात्मद्रव्यवाद: ३५३ वा? यदि शरीरम् ; तहि शरीरं प्रत्युपसर्पणाच्छरीरगुणाकृष्टाः पश्वादय इत्यात्मविशेषगुणाकृष्टत्वे साध्ये शरीरगुणाकृष्टत्वसाधनाद्विरुद्धो हेतुः । प्रथात्मा; तस्य समाकृष्यमाणार्थदेशकालाभ्यां सदाभिसम्बन्धान तं प्रति किञ्चिदुपसर्गत । न हत्यन्ताश्लिष्टकण्ठकामिनी कामुकमुपसर्पति । अन्यदेशो ह्यर्थोऽन्यदेशं प्रत्युपसर्पति, यथा लक्ष्यदेशार्थं प्रति बाणादिः । अन्य कालं वा प्रत्यन्यकालः, यथांकुरं प्रत्यपरापरशक्तिपरिणामलाभेन बीजादिः । न चैतदुभयं नित्यव्यापित्वाभ्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा सन्निहिते सम्भवति, अतो 'देवदत्तं प्रत्युपसपंन्तः' इति धमिविशेषणं 'देवदत्तगुणाकृष्टाः' इति साध्य धर्म : 'तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति साधनधर्मः परस्य स्वरुचिविरचित एव स्यात् । विकल्पों में से कौनसा विकल्प इष्ट है ? यदि शरीर देवदत्त शब्द का अर्थ है तो शरीर के प्रति उत्सर्पण होने से पशु आदि शरीर के गुण से आकर्षित हुए हैं । अतः आत्मा के गुण से आकर्षित होनेरूप साध्य में शरीर के गुण से प्राकर्षित होनेरूप हेतु साध्य से विपरीत होने के कारण विरुद्ध हेत्वाभास होता है। दूसरा विकल्प-देवदत्त शब्द का वाच्य आत्मा है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं. प्रात्मा के निकट आकृष्ट होने योग्य कोई पदार्थ अवशेष नहीं है, संपूर्ण देश तथा काल के साथ उसका सदा सम्बन्ध रहने से उसके निकट कोई वस्तु आकर्षित नहीं होगी। जिसके अत्यंत गाढरूप से कामिनी आलिंगन कर रही है उसका कामुक के प्रति प्राकृष्ट होना क्या अवशेष है ? वह तो प्राकृष्ट हो है । जो अन्य स्थान पर पदार्थ है वह अन्य स्थान के प्रति जाता है, जैसे बाण पहले धनुष पर था और फिर लक्ष्य के स्थान पर जाता है । अथवा अन्यकाल का पदार्थ अन्यकाल के प्रति पहुंचता है, जैसे अपर अपर शक्ति परिणमन द्वारा बीज अंकुर के प्रति प्राप्त होता है । इसतरह की देश और काल के निमित्त से होनेवाली आकर्षण रूप क्रिया आत्मा के प्रति होना अशक्य है, क्योंकि आत्मा नित्य एवं सर्वगत होने के कारण सब जगह सतत सन्निहित [निकट] ही रहता है । इसलिये "देवदत्त के पास आकृष्ट होते हैं" ऐसा पक्ष का विशेषण और "देवदत्त के गुण के कारण ही आकृष्ट होते हैं" यह साध्य धर्म, एवं "उसके प्रति आकृष्ट होने वाले होने से" यह साधनधर्म ये सबके सब वैशेषिक के स्वकपोल कल्पित मात्र सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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