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________________ प्रात्मद्रव्यवाद: ३४१ द्रव्यत्वम् ; तथाहि-एक द्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वाच्छब्दवत् । 'एकद्रव्यगुणत्वात्' इत्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभिचारः, तनिवृत्त्यर्थं 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इति विशेषणम् । 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युच्यमाने हस्तमुसलसंयोगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिक्रियाहेतुनानेकांतः, तन्निवृत्त्यर्थम् ‘एकद्रव्यत्वे सति' इति । 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्वात्' इत्युच्यमाने स्वाश्रयासंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेनानेकान्तः तत्परिहारार्थ 'गुणत्वात्' इत्युक्तम् ।' तदेतदप्यविचारितरमणीयम् ; अदृष्टस्य गुणत्वप्रतिषेधात्, अतो विशेष्यासिद्धो हेतुः । विशेषणासिद्धश्च ; एकद्रव्यत्वाप्रसिद्धः । तद्धि किमेकस्मिन्द्रव्ये संयुक्तत्वात्, समवायेन वर्तमानात्. विशेषगुण स्वरूप है, जैसे शब्द विशेष गुण होने से एक आकाश में ही रहता है । “एक द्रव्यगुणत्वात्" इतना ही हेतु बनाते तो रूप आदि गुणों के साथ व्यभिचार होता, क्योंकि रूपादिक भी एकद्रव्यरूप हैं इसलिये "क्रिया हेतु गुणत्वात्" विशेषण जोड़ा है । क्रिया हेतु गुणत्वात् इतना हेतु प्रयुक्त होता तो हाथ और मूसल के संयोग द्वारा अपने आश्रय में जो संयुक्त नहीं है ऐसी स्तम्भादि पदार्थको तोड़नेवाली क्रिया होती है उसके साथ अनेकांत आता उस दोष को दूर करने के लिये "एक द्रव्यत्वे सति" ऐसा विशेषण दिया है, अर्थात् हाथ और मसल ये दो द्रव्य हैं, एक नहीं है, अतः इनसे जो असंयुक्त है उस स्तम्भादि में भी क्रिया हो जाती है अर्थात् मूसल से धान्य कूटते समय दूरस्थ स्तम्भादिका पतन हो सकता है, किन्तु एक द्रव्य में ऐसा नहीं होता वहां तो अपने आश्रय में संयुक्त होवे तभी क्रिया होती है । 'एक द्रव्यत्वे सति क्रिया हेतुत्वात्' ऐसा हेतु वचन होता तो अपने प्राश्रय से असंयुक्त-दूर रहनेवाला जो लोह आदि पदार्थ उस पदार्थ में क्रिया का हेतु बननेवाले चुम्बक पाषाण के साथ अनेकांत प्राता है, उसका परिहार करने के लिये "गुणत्वात्" यह वचन जोड़ा है, इसतरह “एक द्रव्यत्वे सति क्रिया हेतु गुणत्वात्" यह निर्दोष हेतु आश्रयान्तर में क्रिया करना रूप साध्य को सिद्ध करता है । और उसके सिद्ध होने पर प्रात्मा का सर्वव्यापकत्व सिद्ध होता है। जैन-यह कथन बिना सोचे किया गया है, हम जैन ने पहले ही प्रसिद्ध कर दिया है कि अदृष्ट गुण नहीं हो सकता, अतः यह हेतु विशेष्यासिद्ध है। इस हेतु का विशेषण भी प्रसिद्ध है, एक द्रव्यत्वे सति-एक द्रव्य रूप होना अदृष्ट में दिखायी नहीं देता, पाप अदृष्ट को एक द्रव्यरूप क्यों मानते हैं ? एक द्रव्य में संयुक्त होने से अदृष्ट को एक द्रव्यरूप माना है, अथवा समवाय से एक द्रव्य में रहने के कारण, या अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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