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________________ ३४० प्रमेयकमलमार्तण्डे हस्ताद्यवयवप्रविष्टानां परिस्पन्दः; स हि चलनलक्षणा क्रिया, कथं गुणः ? अन्यथा गमनादेरपि गुणत्वानुषंगात्क्रियावातॊच्छेदः । तथा चायुक्तम्-क्रियावत्त्वं द्रव्यलक्षणम् । यदप्युक्तम्-'अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्त प्राश्रयान्तरे कर्मारभते एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वाप्रयत्नवत् । न चास्य क्रियाहेतुत्वमसिद्धम् ; तथाहि-प्रग्नेरूद्धज्वलनं वायोस्तियंपवनममनसोश्चाद्य कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितं कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् पाण्यादिपरिस्पन्दवत् । नाप्येक देवदत्त के प्रात्मा के गुणपूर्वक कैसे होते हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिये ग्रासादिका दृष्टांत दिया और वही प्रसिद्ध रहा क्योंकि देवदत्त का आत्मा देवदत्त के शरीर के बाहर रहना प्रसिद्ध है उसके स्त्री आदि के स्थान पर जैसे देवदत्त के प्रात्मा का अस्तित्व प्रसिद्ध है वैसे ही ग्रासादि के स्थान पर उक्त प्रात्मा का अस्तित्व असिद्ध है। यदि ग्रासादिक आत्मा के धर्मादिगुण का कार्य न होकर प्रयत्न नामा गुण का कार्य है तो पूनः प्रश्न होता है कि प्रयत्न किसे कहना ? आत्मा का परिस्पंद होना या हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों में प्रविष्ट हुए प्रात्मा के अवयवों का परिस्पंद होना ? उभयरूप भी प्रयत्न हलन चलन रूप क्रिया है, इसको गुण किस प्रकार कह सकते हैं ? यदि क्रिया भी गुण है तो गमनादि क्रिया को भी गुण कहना होगा और इसतरह क्रिया का नाम ही समाप्त हो जायगा। और क्रिया का अस्तित्व समाप्त होने से जो क्रियावान हो वह द्रव्य है ऐसा आपके यहां द्रव्य का लक्षण माना है वह अयुक्त सिद्ध होगा। वैशेषिक-हमारे ग्रन्थ में अनुमान प्रमाण है कि “अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्त प्राश्रयान्तरे कारभते एक द्रव्यत्वे सति क्रिया हेतु गुणत्वात्, प्रयत्नवत्" अदृष्ट-धर्मअधर्म अपने प्राश्रयभूत प्रात्मा में संयुक्त रहकर आश्रयान्तर में क्रिया को प्रारम्भ करता है, क्योंकि एक द्रव्यत्व रूप होकर क्रिया का हेतु रूपगुण है जैसे प्रयत्न नामा गुण है । अदृष्ट का क्रिया हेतुपना असिद्ध भी नहीं है, अब इसी को सिद्ध करते हैं-अग्निकी ऊपर होकर जलते रहना रूप जो क्रिया है तथा वायु का तिर्यक् बहना तथा अणु और मन की प्रथम क्रिया ये सब देवदत्त के विशेष गुणद्वारा ही कराये गये हैं, क्योंकि कार्य होकर उसी के उपकारक देखे जाते हैं, जैसे हस्त आदि की परिस्पंद रूप क्रिया उसके गुण द्वारा होकर उसी के उपकारक होती है । “एक द्रव्यत्वे सति" यह हेतु का विशेषण असिद्ध भी नहीं है, अब इसको सिद्ध करते हैं-अदृष्ट एक-अात्म द्रव्यरूप है क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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