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________________ ३४२ प्रमेयकमलमार्तण्डे अन्यतो वा स्यात् ? न तावत्संयुक्तत्वात् ; संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रयत्वात्, अदृष्टस्य चाद्रव्यत्वात् । अन्यथा गुणवत्त्वेनास्य द्रव्यत्वानुषंगात् 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्येतद्विघटते । समवायेन वर्त्तनं च समवाये सिद्धे सिद्धयेत्, स चासिद्धः, अग्रे निषेधात् । तृतीयपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव न युक्तः । क्रियाहेतुत्वं चास्याऽनुपपन्नम् । तथा हि-देवदत्तशरीरसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं द्वीपांतरवतिषु मरिणमुक्ताफलप्रवालादिषु देवदत्त प्रत्युपसर्पणवत्सु क्रियाहेतुः, उत द्वीपान्तर वत्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशे, किं वा सर्वत्र ? तत्राद्यपक्षस्यानभ्युपगम एव श्रेयान्, अतिव्यवहितत्वेन द्वीपान्तरत्तिद्रव्यस्तस्यानभिसम्बन्धेन तत्र क्रियाहेतुत्वायोगात् । ननु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धसम्भवात्तेषामनभिसंबंधोऽसिद्धः, किसी कारण से १ प्रथम विकल्प-एक द्रव्य में संयुक्त होने के कारण अदृष्ट को एक द्रव्यरूप मानते हैं ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि संयोग गुणरूप होने से द्रव्य के आश्रय में रहता है और आपका अदृष्ट तो अद्रव्य है। यदि इसे द्रव्यरूप मानेंगे तो गुणवान कहलायेगा जब वह गुणवाला द्रव्य है तब उसे "क्रियाहेतुगुणत्वात्" क्रिया का हेतु रूप गुण है ऐसा नहीं कह सकते । समवाय से एक द्रव्य में रहना एक द्रव्यत्व है ऐसा द्वितीय पक्ष भी गलत है, यह पक्ष तो समवाय नामा पदार्थ के सिद्ध होने पर सिद्ध होगा, किंतु समवाय असिद्ध है, आगे उसका खण्डन होनेवाला है । तीसरा पक्ष-संयोग और समवाय से भिन्न अन्य किसी कारण से अदृष्ट में एक द्रव्यपना है ऐसा कहना भी शक्य नहीं, क्योंकि संयोग और समवाय का छोड़कर तीसरा सम्बन्ध प्रापने माना नहीं। आपने अदृष्ट में क्रियाहेतुत्व सिद्ध करने का प्रयास किया है किन्तु वह प्रसिद्ध है अदृष्ट क्रिया को करता है या क्रिया का कारण है ऐसा आप मानते हैं सो देवदत्त के शरीर में स्थित जो प्रात्मप्रदेश हैं उनमें रहने वाला अदृष्ट द्वीपांतर में होने वाले मरिण, मोती, रत्न, प्रवालों को देवदत्त के प्रति उत्कर्षित [खींचकर लाने में ] करने में हेतु होता है, अथवा जो अदृष्ट उसी अन्य द्वीपांतरवर्ती द्रव्य में रहनेवाले आत्म प्रदेशों में स्थित है वह देवदत्त के प्रति उन मणि आदि को उत्कर्षित करने में हेतु होता है ? या कि सर्वत्र रहनेवाले आत्म प्रदेशों का अदृष्ट उस क्रिया का हेतु होता है ? प्रथम पक्ष तो स्वीकार नहीं करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि द्वीपांतर में होनेवाले द्रव्य अति दूर होने के कारण प्रदृष्ट से सम्बन्धित नहीं है अतः वहां क्रिया का हेतु नहीं हो सकता। “वैशेषिक-अपने आश्रयभूत प्रात्मा के साथ उन मणि आदि का संयोग संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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