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________________ ३३४ प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु 'देहान्तरे परसम्बन्धिन्यन्तराले चात्मा न प्रतीयते' इत्य युक्तमुक्तम् ; अनुमानात्तत्रास्य सद्भावप्रतीतेः; तथाहि-देवदत्तांगनाद्यंगं देवदत्तगुणपूर्वक कार्यत्वे तदुपकारकत्वाद्ग्रासादिवत् । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तज्जन्मनि व्याप्रियते नान्यथा, अतस्तदंगादिकार्यप्रादुर्भावदेशे तत्कारणवत्तद्गुणसिद्धिः । यत्र च गुणाः प्रतीयन्ते तत्र तद्गुण्यप्यनुमीयते एव, तमन्तरेण तेषामसम्भवात् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतो देवदत्तांगनाद्यंगादिकार्यस्य कारणत्वेनाभिप्रेता ज्ञानदर्शनादयो देवदत्तात्मगुणाः, धर्माधमौं वा ? न तावज्ज्ञानदर्शनसुखादयः स्वसंवेदनस्वभावास्तज्जन्मनि व्याप्रियमारणा: होवेगा, क्योंकि आकाश जैसे अस्पर्शवान होने से नित्य है वैसे प्रात्मा नित्य है इस तरह आपने दृष्टांत दिया किंतु आकाशादि पदार्थ भी सर्वथा नित्य नहीं है इनके सर्वथा नित्यत्व का पहले ही निराकरण कर आये हैं। अतः आकाश को दृष्टांत बनाकर उससे आत्मा में नित्यत्व सिद्ध करना असम्भव है । वैशेषिक-जैन ने कहा था कि-अपने शरीर को छोड़कर अन्य के शरीर में तथा अंतराल में आत्मा की प्रतीति नहीं होती है, सो यह कथन अयुक्त है, अंतराल में तथा शरीरांतर में आत्मा का रहना अनुमान से सिद्ध होता है, अब इसी अनुमान को उपस्थित करते हैं-देवदत्त के स्त्री पुत्रादि का शरीर देवदत्त के गुण द्वारा निर्मित है, अथवा देवदत्त के गुण के कारण है, क्योंकि वह शरीर कार्य स्वरूप है एवं उसी देवदत्त का उपकार करता है, जैसे भोजन के ग्रासादिक हैं वे देवदत्त के उपकारक कार्य होने से उसी के गुण पूर्वक होते हैं। कारण जब कार्य के निकट देश में रहता है तब कार्य को करने में प्रवृत्त होता है अन्यथा नहीं ऐसा नियम है, इसलिये देवदत्त द्वारा भोग्य जो उसकी स्त्री है उसके शरीरोत्पत्ति प्रदेश में जैसे उस शरीर के अन्य कारण रहा करते हैं वैसे देवदत्त का गुण रूप कारण भी रहा करता है, और जब देवदत्त का गुण [अदृष्ट-भाग्य] उस प्रदेश में है तो गुणी-देवदत्त की आत्मा भी वहां अवश्य है जहां पर गुण प्रतीत होते हैं वहां गुणी का अनुमान अवश्य लगा लेना चाहिए, क्योंकि गुणी के बिना गुरण रहते नहीं इसतरह अंतराल में भी प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । जैन-यह कथन असमीचीन है, देवदत्त की स्त्री आदि के शरीरादि कार्य है उसका कारण आप देवदत्त के गुण मानते हैं सो वे गुण कौन से हैं, ज्ञानदर्शन इत्यादि देवदत्त के आत्मा के गुण हैं, अथवा धर्म-अधर्म-पुण्य-पापरूप गुण हैं ? ज्ञानदर्शन सुखादि गुण स्त्री शरीर आदि के कारण नहीं हो सकते, वे तो स्वसंवेदन स्वभाव वाले हैं, स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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