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________________ प्रात्मद्रव्यवादः नित्यद्रव्यत्वं च किं कथञ्चित्, सर्वथा वा विवक्षितम् ? कथञ्चिच्चेत् ; घटादिनानेकान्तः, तस्याणुपरिमाणानधिकरणत्वे कथञ्चिन्नित्यद्रव्यत्वे च सत्यपि व्यापित्वाभावात् । सर्वथा चेत् ; प्रसिद्धत्वम्, सर्वथा नित्यस्य वस्तुनोऽर्थक्रियाकारित्वेनाश्वविषाणप्रख्यत्वप्रतिपादनात् । अस्मदादिप्रत्यक्षविशेषगुणाधिकरणत्वाच्चाणुपरिमाणप्रतिषेधमात्रमेव स्याद् घटादिवत्, तस्य चेष्टत्वात्सिद्धसाध्यना । अस्पर्शवद्रव्यत्वाच्चात्मनो यदि कथञ्चिन्नित्यत्वं साध्यते; तदा सिद्धसाध्यता । अथ सर्वथा; तहि हेतोरनन्वयत्वमाकाशादोनामपि सर्वथा नित्यत्वस्य प्रतिपिद्धत्वात् । पनकी बुद्धि हुप्रा करती है किन्तु वह आकाश कार्य नहीं है । अतः जिसमें कियेपनेकी बुद्धि हो वह कार्य है ऐसा कहना गलत ठहरता है । अनैकान्तिक होता है । ___ "अणु परिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात्" ऐसा हेतु दिया था उसमें अणु परिमाण अनधिकरत्व रूप जो विशेषण है उसका खण्डन हो गया, अब नित्य द्रव्यत्वरूप विशेष्य का विचार करते हैं—नित्य द्रव्य होने से प्रात्मा व्यापक है ऐसा वैशेषिक का कहना है सो नित्य द्रव्यत्व कथञ्चित है या सर्वथा ? कथंचित् कहो तो घटादि पदार्थों के साथ हेतु अनैकान्तिक होवेगा, क्योंकि घटादि पदार्थ अणु परिमाण का अनधिकरण एवं कथंचित् नित्य होकर भो व्यापक नहीं है। अतः जो कथंचित् नित्य हो वह व्यापक है ऐसा अविनाभाव नहीं होने से हेतु सदोष-अनेकान्तिक ठहरता है । जो सर्वथा नित्य है वह व्यापक होता है ऐसा माने तो वह हेतु प्रसिद्ध दोष का भागी बनेगा, हम जैन इस बात को अच्छी तरह से सिद्ध कर चुके हैं कि सर्वथा नित्य वस्तु अर्थ क्रिया को कर नहीं सकतो, वह तो अश्वविषारण के समान शून्य है । आत्मा व्यापक है इस बात को सिद्ध करने के लिये वैशेषिक ने दूसरा अनुमान दिया कि अणु परिमाण का अधिकरण आत्मा नहीं है, क्योंकि वह हमारे द्वारा प्रत्यक्ष होने योग्य विशेष गुणों का आधार है, सो यह हेतु प्रात्मा में केवल अणु परिमाण का निषेध करता है, जैसे घटादि में अणु प्रमाण का निषेध है, किन्तु इसके निषिद्ध होने मात्र से प्रात्मा में महापरिमाण की-व्यापकत्व की सिद्धि नहीं होती। प्रात्मा में अणु परिमाण का निषेध तो हम जैन को इष्ट ही है, हम जैन भी प्रात्मा को अणु परिमाण नहीं मानते । अस्पर्शवाला द्रव्य होने से प्रात्मा नित्य है ऐसा वैशेषिक ने कहा सो यदि कथंचित् नित्यत्व सिद्ध करना है तब तो सिद्ध साध्यता है-कथंचित् नित्य होने में कोई विवाद नहीं है। यदि सर्वथा नित्यत्व सिद्ध करना है तो वह अस्पर्शवत्व हेतु दृष्टांत के अन्वय से रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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