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________________ ३३२ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रसज्यपक्षेप्यसिद्धत्वम् ; तुच्छस्वभावाभावस्य प्रमाणाविषयत्वेन प्रतिपादनात् । सिद्धो वा किमसौ साध्यस्य स्वभावः, कार्य वा ? यदि स्वभावः; तहि साध्यस्यापि तद्वत्तुच्छरूपतानुषङ्गः। अथ कार्यम् ; तन्न; तुच्छस्वभावाभावस्य कार्यत्वायोगात् । कार्यत्वं हि किं स्वकारणसत्तासमवायः, कृतमिति बुद्धिविषयत्वं वा? न तावदाद्यः पक्षः; अभावस्य स्वकारणसत्तासमवायानभ्युपगमात्, अन्यथा भावरूपतैवास्य स्यात् । नापि द्वितीयः; तुच्छस्वभावाभावस्य तद्विषयत्वासम्भवात् । तस्य हि प्रमाणागोचरत्वे कथं कृतबुद्धिविषयत्वं सम्भवेत् ? अनैकान्तिकं चैतत् ; खननोत्सेचनानन्तरमकार्येप्याकाशे कृतबुद्धिविषयत्वसम्भवात् । "अणु परिमाण का अधिकरण नहीं है" इस वाषय के नकार का अर्थ सर्वथा निषेध रूप प्रसज्य प्रतिषेध करते हैं तो वह विशेषण प्रसिद्ध कहलायेगा, क्योंकि सर्वथा प्रतिषेध रूप तुच्छाभाव प्रमाण का विषय नहीं हो सकता है ऐसा पहले ही प्रतिपादन कर चके हैं। कदाचित तुच्छ प्रभाव को मान भी लेवे तो यह तुच्छ अभाव व्यापकत्व विशिष्ट आत्मा रूप साध्य का स्वभाव है या कार्य है। यदि स्वभाव है तो साध्य भी स्वभाव के समान तुच्छाभाव रूप बन जायगा। भावार्थ यह हुआ कि प्रात्मा व्यापक है क्योंकि वह अणु परिमाण का आधार नहीं है ऐसा अनुमान का प्रयोग कर इस अणु परिमाण नहीं का अर्थ सर्वथा किसी भी परिमाण वाला नहीं है ऐसा तुच्छ प्रभाव करते हैं और वह तुच्छाभाव आत्मा का स्वभाव मानते हैं तब आत्मा भी अभाव रूप सिद्ध होता है, अतः तुच्छाभाव आत्मा का स्वभाव है ऐसा कहना ठीक नहीं रहता है । यदि उस तुच्छ प्रभाव को आत्मा का कार्य माना जाय तो वह भी बनता नहीं, क्योंकि तुच्छ प्रभाव किसी का कार्य नहीं होता कार्यत्व किसे कहना स्वकारण सत्ता समवाय - अपने कारण को सत्ता का समवाय होना कार्यत्व है अथवा "किया है" ऐसी बुद्धि का विषय होना कार्यत्व है ? प्रथम विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि आप वैशेषिक ने अभाव में स्व कारण सत्ता समवाय नहीं माना है, यदि मानेंगे तो उस अभाव को सद्भाव स्वरूप स्वीकार करना पड़ेगा। द्वितीय विकल्प-कियेपनकी बुद्धि का विषय होना कार्यत्व है ऐसा कहना भी गलत है. क्योंकि तुच्छाभाव बुद्धि का विषय नहीं होता। जब तुच्छाभाव प्रमाण का विषय हो नहीं है तब वह कृत बुद्धि-कियेपनकी बुद्धि का विषय कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । एक बात यह है कि जिसमें कियेपनकी बुद्धि होवे वह कार्य है ऐसा कहना अनैकान्तिक है, कैसे सो ही बताते हैं-खोदकर मिट्टी प्रादि को निकालकर गड्ढा बनाते हैं उस गड्ढे को पोलरूप आकाश में "किया है" ऐसी किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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