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________________ प्रात्मद्रव्यवाद: ३३५ प्रतीयन्ते । वीर्य तु शक्तिः, सापि तद्दे ह एवानुमीयते, तत्रैव तल्लिङ्गभूतक्रियायाः प्रतीतेः। तज्ज्ञानादेस्तद्दे ह एव तत्कार्यकारणविमुखस्याध्यक्षादिना प्रतीतेः तद्बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति हेतुः । अथ धर्माधमौ; तदंगादिकार्य तन्निमित्तमस्माभिरपीष्यते एव । तदात्मगुणत्वं तु तयोरसिद्धम् ; तथाहि-न धर्माधमौं प्रात्मगुणी अचेतनत्वाच्छब्दादिवत् । न सुखादिना व्यभिचार:; अत्र हेतोरवर्तनात्, तद्विरुद्धेन स्वसंवेदनलक्षणचैतन्येनास्याऽव्याप्तत्वासाधनात् । नाप्यसिद्धता; अचेतनौ तौ स्वग्रहण आदि के शरीरोत्पत्ति में वे गुण व्यापार करते हुए प्रतीत नहीं होते हैं । वीर्य तो शक्ति को कहते हैं और यह शक्ति भी केवल देवदत्त के शरीर में अनुमानित होती है, क्योंकि शक्ति को अनुमापिका क्रिया है [ कार्य क्षमता, बोझा ढोना इत्यादि ] और वह मात्र देवदत्त के शरीर में ही उपलब्ध होती है। देवदत्त के प्रात्मा के ज्ञानादि गुण भी देवदत्त के शरीराधार पर प्रतीत होते हैं, किंतु देवदत्त की स्त्री के शरीरादि कार्य को करते हुए प्रतीत नहीं होते प्रत्यक्षादि द्वारा उक्त कार्य से परांमुख ही प्रतीत होते हैं, अतः प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित पक्ष निर्देश के अनन्तर प्रयुक्त होने से कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष वाला है । अर्थात्- "देवदत्त के स्त्री आदि के शरीर का कारण देवदत्त के प्रात्मा का गुण है' ऐसा जो पक्ष कहा था वह पक्ष प्रत्यक्षादि से बाधित हुआ है इसलिये "कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्" हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष युक्त होता है । देवदत्त के आत्मा के धर्म-अधर्म नामा गुगा देवदत्त के स्त्री के शरीर का कारण है ऐसी दूसरी बात कहो तो हम जैन को मान्य होगा, किन्तु उन धर्मादिको प्रात्मा का गुण मानना प्रसिद्ध है। आगे इसी को स्पष्ट करते हैं-धर्म-अधर्म आत्मा के गुण नहीं हैं, क्योंकि वे अचेतन हैं, जैसे शब्दादिक अचेतन होने से प्रात्मा के गुण नहीं हैं। यह अचेतनत्व हेतु सुखादि के साथ व्यभिचरित भी नहीं होता है, क्योंकि सुखादि में अचेतनपना है नहीं, सुखादिक तो अचेतन के विरुद्ध चैतन्य से व्याप्त है, वे स्वसंवेदन रूप अनुभव में आते हैं अतः चेतनत्व के साथ इनकी अव्याप्ति बतलाना प्रसिद्ध है । धर्म-अधर्म का अचेतनपना प्रसिद्ध भी नहीं है, अब इसी को बताते हैंधर्म-अधर्म दोनों ही अचेतन हैं. क्योंकि वे स्वयं का ग्रहण [जानना] नहीं कर पाते, जैसे वस्त्रादि पदार्थ स्वयं के ग्राहक नहीं होते हैं। स्वग्रहणविधुरत्व हेतु बुद्धि के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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