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________________ ३०८ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे क्रिया द्रव्यं वलिपलितादिकं वा निमित्तम्; तत्प्रत्यय विलक्षणत्वात्पटादिप्रत्ययवत् । तथा च सूत्रम् "अपरस्मिन्परं युगपदयुगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि" [ वैशे० सू० २/२/६] श्राकाशवच्चास्यापि विभुत्व नित्यैकत्वादयो धर्माः प्रतिपत्तव्या इति । अत्रोच्यते - परापरादिप्रत्ययलिंगानुमेयः कालः किमेकद्रव्यम्, अनेकद्रव्यं वा ? न तावदेकद्रव्यम्; मुख्येतरकालभेदेनास्य द्वौ विध्यात् नहि समयावलिकादिर्व्यवहारकालो मुख्यकालद्रव्य मन्तरेणोपपद्यते यथा मुख्यसत्त्वमन्तरेण क्वचिदुपचरितं सत्त्वम् । स च मुख्यः कालोऽनेकद्रव्यम्, प्रत्याकाशप्रदेशं व्यवहारकालभेदान्यथानुपपत्त े: । प्रत्याकाशप्रदेशं विभिन्नो हि व्यवहारकालः कुरुक्षेत्रलङ्काकाशदेशयोदिवसादिभेदान्यथानुपपत्त ेः । ततः प्रतिलोकाकाशप्रदेशं कालस्याणुरूपतया भेदसिद्धिः । विलक्षण हुआ करता है । इसी विषय पर हमारे यहां वैशेषिक सिद्धांत का सूत्र है - " अपरस्मिन् परं युगपद युगपत् चिर क्षिप्रं इति काल लिंगानि" अपर वस्तु में भी [ दिशादेश के अपेक्षा निकट ] परत्वप्रत्यय होता है, युगपत् तथा अयुगपत् की प्रतीति होती है, एवं चिरकालपना और क्षिप्र - शीघ्रपना प्रतीत होता है, यही कालद्रव्य के लिंग हैं— कालद्रव्य को सिद्ध करने वाले हेतु हैं । इस कालद्रव्य को हम आकाश के समान ही व्यापक, नित्य, एक इत्यादिरूप मानते हैं, इसप्रकार कालद्रव्य का वर्णन समझना चाहिये | जैन - यह कथन प्रयुक्त है, इस कालद्रव्य के विषय में सबसे पहले हमारा यह प्रश्न है कि जो परापर प्रत्ययरूप लिंग द्वारा अनुमेय होता है वह कालद्रव्य एक द्रव्यरूप है अथवा अनेक द्रव्यरूप है ? एक द्रव्यरूप नहीं कह सकते क्योंकि मुख्य काल और व्यवहारकाल इसप्रकार काल दो प्रकार का होता है, इस जगत में समय, आवली, घड़ी, मुहूर्त्त, प्रहर आदि स्वरूप जो व्यवहारकाल देखा जाता है वह मुख्य काल द्रव्य के बिना नहीं हो सकता है, जैसे कहीं पर मुख्य अस्तित्व हुए बिना उपचरित अस्तित्व नहीं होता, अथवा मुख्य अग्नि के हुए बिना बालकमें उसका उपचरितपना संभव नहीं होता है । यह मुख्य काल अनेक द्रव्य रूप है, कालद्रव्य अनेक हुए बिना प्रत्येक आकाश प्रदेशों में व्यवहारकाल का भेद बन नहीं सकता है, अनुमान द्वारा यही बात सिद्ध होती है— प्रत्येक प्रकाश के प्रदेश में होने वाला व्यवहार काल भिन्न भिन्न कालद्रव्य के निमित्त से होता है [ प्रतिज्ञा या पक्ष ] क्योंकि अन्यथा कुरुक्षेत्र और लंका के देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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