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________________ तदुक्तम्— कालद्रव्यवाद! "लोयायासपए से एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का । सीविव ते कालार मुणेयव्वा ||१|| ” M [ द्रव्यस० गा० २२ ( ? ) ] यौगपद्यादिप्रत्ययाविशेषात्तस्यैकत्वम्; इत्यप्यसत्; तत्प्रत्ययाविशेषा सिद्ध: । तेषां परस्परं विषिष्टत्वात्कालस्याप्यतो विशिष्टत्वसिद्धि: । सहकारिणामेव विशिष्टत्वं न कालस्य; इत्यप्यनुत्तरम् ; स्वरूपमभेदयतां सहकारित्वप्रतिक्षेपात् । ३०६ में होने वाला दिन आदि का भेद नहीं हो सकता है । इस अनुमान प्रमाण से लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक काल द्रव्य रूप से सिद्ध होता है । कहा भी है— लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है, जैसे रत्नों की राशि में रत्न पृथक्-पृथक् हैं वैसे कालागु या कालद्रव्य एक एक पृथक् पृथक् हैं । Jain Education International शंका- युगपत् होना क्रमशः होना इत्यादि प्रत्यय तो सर्वत्र समान है अतः काल द्रव्य एक है ? समाधान - ऐसी बात नहीं है युगपत् होना इत्यादि प्रत्यय समान नहीं है, इन प्रत्यय या ज्ञानों में विशिष्टता पायी जाती है, और यह विशिष्टता ही कालद्रव्य की विशिष्टता को - [ विभिन्नता को ] सिद्ध करती है । शंका --- सहकारी कारणों के अनेक होने के निमित्त से यौगपद्य श्रादि प्रत्ययों में विशिष्टता आती है, काल द्रव्य के निमित्त से नहीं ? समाधान- यह कथन भी गलत है, मुख्य द्रव्य के स्वरूप में भेद हुए बिना सहकारी कारण भेद नहीं कर सकता, अथवा कूटस्थ नित्य ऐसे आपके कालद्रव्य का सहकारी हो नहीं सकता । इस विषय में पहले खण्डन कर आये हैं कि सहकारी कारण सर्वथा नित्य पदार्थ के सहायक नहीं हो सकते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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