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________________ ३०७ नेतरस्माद्भिद्यते 'काल' इति वा न व्यवह्रियते नासावुक्तलिंगः यथा क्षित्यादि:, तथा च कालः, तस्मात्तथेति । विशिष्टकार्यतया चैते प्रत्ययाः काले एव प्रतिबद्धाः । यद्विशिष्टकार्यं तद्विशिष्टकारणादुत्पद्यते यथा घट इति प्रत्ययाः, विशिष्टकार्यं च परापरव्यतिकरयौगपद्यायौगपद्य चिरक्षिप्रप्रत्यया इति । परापरयोः खलु दिग्देशकृतयोः व्यतिकरो विपर्ययः - यत्रैव हि दिग्विभागे पितर्युत्पन्नं परत्वं तत्रैव स्थिते पुत्रेऽपरत्वम्, यत्र चापरत्वं तत्रैव स्थिते पितरि परत्वमुत्पद्यमानं दृष्टमिति दिग्देशाभ्यामन्यनिमित्तान्तरं सिद्धम् ; निमित्तान्तरमन्तरेण व्यतिकरासम्भवात् । न च परापरादिप्रत्ययस्य श्रादित्यादि कालद्रव्यवाद: व्यवहार में नहीं आता वह परापरादिज्ञान का हेतु नहीं होता, जैसे पृथ्वी आदि द्रव्य परापरादि ज्ञान के हेतु नहीं होने से "काल" इस नाम से व्यवहृत नहीं होते हैं, काल द्रव्य परापर प्रत्ययवाला है, अत: इतर से भेद को प्राप्त होता है, इसप्रकार पंचावयव रूप अनुमान द्वारा कालद्रव्य की सिद्धि होती है । ये जो परापर प्रत्यय होते हैं विशिष्ट कार्यरूप हैं और इन कार्यों का सम्बन्ध काल से ही है, अर्थात् ये सब काल द्रव्य के ही कार्य हैं, जो विशिष्ट कार्य होता है वह विशिष्ट कारण से ही होता है, जैसे "घट है" ऐसा ज्ञान होता है वह घट होने पर ही होता है, पर अपर, युगपत् युगपत् चिर- क्षिप्र का जो ज्ञान है यह भी एक विशिष्ट कार्य है अतः वह विशिष्ट कारणरूप काल का होना चाहिये परापर प्रत्यय को दिशा या देश का कार्य माना जाय तो गलत होगा, देशादि के निमित्त से होने वाले परापर प्रत्यय इस परापर प्रत्यय से विलक्षण होते हैं, अब इसी का खुलासा करते हैं - एक पिता है उसमें जहां ही परत्व उत्पन्न हुआ वहीं पर निकट में स्थित पुत्र में अपरत्व है, अर्थात् एक ही देश तथा दिशाविभाग में स्थित पिता में तो परत्व पाया जाता है [ कालकी अपेक्षा दूरपना ] वहीं पर स्थित पुत्र में अपरत्व पाया जाता है [ कालकी अपेक्षा निकटपना ] तथा जहां अपरत्व है वहीं पर स्थित पिता में परत्व उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है, सो यह कार्य दिशा एवं देशरूप निमित्त से पृथक्भूत जो निमित्त है उसकी सिद्धि करता है, निमित्तांतर बिना ऐसा व्यतिकर [ भेद ] नहीं हो सकता है । । वह जो निमित्तांतर है वही कालद्रव्य है । सूर्य आदि का गमन, अथवा किसी पुरुषादि में वलि पलितादिक शरीर में सिकुड़न पड़ना, केश सफेद होना इत्यादि कारणों से परापर प्रत्यय होता है । ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन सूर्यगमन आदि क्रिया से होने वाले परापर प्रत्यय से यह प्रत्यय विलक्षण है, जैसे वस्त्रादिके निमित्त से होने वाला परापर प्रत्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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