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________________ १० कालद्रव्यवादः नापि कालद्रव्यस्य । यच्चोच्यते-कालद्रव्यं च परापरादिप्रत्ययादेव लिङ्गात्प्रसिद्धम् । कालद्रव्यस्य च इतरस्माभेदे 'कालः' इति व्यवहारे वा साध्ये स एव लिङ्गम् । तथा हि-काल इतरस्माद्विद्यते 'काल' इति वा व्यतहर्त्तव्यः, परापरव्यतिकरयोगपद्यायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्यर्यालगत्वात्, यस्तु आकाशद्रव्य के समान वैशेषिक दर्शन में कालद्रव्य की सिद्धि भी नहीं होती है । कालद्रव्य की सिद्धि के लिए पर अपर प्रत्ययरूप हेतु दिया जाता है, अर्थात-काल एक पृथक् पदार्थ है, क्योंकि यह छोटा है, यह बड़ा है इत्यादि ज्ञान हो रहा है। इस विषय में वैशेषिक अपना पक्ष उपस्थित करते हैं वैशेषिक-कालद्रव्य की सिद्धि हम लोग परापरप्रत्यय से करते हैं, काल द्रव्य का इतर द्रव्य से भेद बतलाने के लिए अथवा “काल" यह जो नाम व्यवहार लोक में देखा जाता है वह परापरप्रत्यय से ही हुआ करता है, अब इसी को अनुमान से सिद्ध करते हैं-काल अन्य द्रव्य से भिन्न है अथवा काल यह नाम व्यवहार जगत में सत्य मूलक है, क्योंकि पर-अपर [छोटा-बड़ा] का ज्ञान, युगपत होना-क्रम से होना, जल्दी होना, देरी से होना इत्यादि प्रतीति होती है, इस प्रतीति के कारण ही काल द्रव्य को सत्ता सिद्ध है, जो इतर से भेद को प्राप्त नहीं होता, अथवा काल इस नाम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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