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________________ पृष्ठ १५६ १६१ ( २५ ) विषय संबंध कथंचित् निष्पन्न दो वस्तुओं में होता है १५४ कार्य और कारण भाव में सहभाव या क्रमभाव का नियम नहीं, जिसके होने पर नियम से जिसकी उत्पत्ति हो वह उसका कारण है १५७ अभ्यास के कारण अकेले धूमके देखने से यह धूम अग्नि से उत्पन्न हुआ है ऐसा हो जाता है। जो सर्वथा अकार्य या प्रकारणरूप है वह वस्तु ही नहीं संबंध सद्भाववाद का सारांश १६८-१७० ५ अन्वय्यात्मसिद्धि : १७१ से १८३ बौद्ध के प्रति अनेक पर्यायों में व्याप्त होकर रहने वाले अन्वयी प्रात्मा को सिद्धि १७१ अनुसंधान अर्थात् प्रत्यभिज्ञान अन्वयी प्रात्मा के हो नहीं सकता १७३ प्रात्मा को न मान कर केवल संतान या पर्याय माने तो कृत प्रणाश और प्रकृत अभ्यागम दोष होगा १७४ अन्वय्यात्मसिद्धि का सारांश १८२-१८३ ६ अर्थस्य सामान्य विशेषात्मकत्ववाद : १८४ से २२० वैशेषिक द्वारा सामान्य और विशेष को सर्वथा पृथक् सिद्ध करने का पक्ष-सामान्य और विशेष में भिन्न प्रतिभास के कारण भेद है १८४ द्रव्यादि छह पदार्थ १८६ जैन उक्त मंतव्य का निरसन करते हैं १६० जो भिन्न प्रमाण द्वारा ज्ञात हो वह सर्वथा भिन्न है ऐसा एकांत प्रसिद्ध है १६३ अवयव और अवयवी सर्वथा भेद मानना बाधित है तादात्म्य पद की व्युत्पत्ति वस्तु को कथंचित् भेदाभेद रूप मानने में संशयादि पाठ दोष नहीं पाते २०२-२१३ अर्थ के सामान्य विशेषात्मक होने का सारांश २१८-२२० ७ परमाणु रूप नित्य द्रव्य विचार : २२१ से २२६ कार्य उत्पत्ति के लिये तीन कारण संयोग के कारण परमाणुओं में अतिशय भी संभव नहीं २२३ १६४ २२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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