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________________ २७० प्रमेयकमलमार्तण्डे नात्पांश्वादिवदेवावसीयते, तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रवणात् । ननु गन्धादयो देवदत्त प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगो निगुणत्वाद्गुणानाम् ; तन्न; तद्वतो द्रव्यस्यैवानेन प्रतिनिवर्तनात्, केवलानां तेषां निष्क्रियत्वेनागमननिवर्त्तनायोगात् । ततः सिद्धं गुणवत्त्वाव्यत्वं शब्दस्य । __क्रियावत्त्वाच्च बाणादिवत् । निष्क्रियत्वे तस्य श्रोत्रेणाऽग्रहणमनभिसम्बन्धात् । तथापि ग्रहणे श्रोत्रस्याप्राप्यकारित्वं स्यात् । तथा च, 'प्राप्यकारि चक्षुर्बाह्य न्द्रियस्वात्त्वगिन्द्रियवत्' इत्यस्यान वायु से उड़ते हुए बीच में ही रुक जाते हैं, उल्टी दिशा में उड़ने लग जाते हैं उससे मालूम होता है कि इन पदार्थों का वायु प्रादि से संयोग होने के कारण अभिघात हुया है, तथा शब्द भी वायु के कारण अन्य दिशा में स्थित पुरुष द्वारा सुनाई देते हैं अतः उनका वायु से संयोग हुआ है ऐसा सिद्ध होता है। शंका-गन्ध आदि गुण भी देवदत्त के प्रति प्राते हुए वायु से रुक जाते हैं अथवा लौट जाते हैं किन्तु उन गंधादि का वायु के साथ संयोग तो नहीं माना जाता, क्योंकि गन्ध आदिक स्वयं ही गुण है, गुण में अन्य गुण नहीं होते, वे तो निर्गुण हुआ करते हैं। समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना, गन्धादिका जो निवर्तन होता है वह गन्धादिमान द्रव्य का ही निवर्तन है, वायु द्वारा गन्ध आदि गुणवाला द्रव्य ही निवृत्त होता है, द्रव्य रहित केवल गुण तो निष्क्रिय हुअा करते हैं वे न पाते हैं और न निवृत्त होते हैं, गमन लौटना आदि क्रिया का उनमें प्रयोग है । इसप्रकार शब्द में संख्यावान पना, संयोग पना आदि गुण पाये जाने से वह द्रव्य रूप सिद्ध होता है, गुण रूप नहीं, अतः शब्द गुण नहीं अपितु गुणवाला या गुणवान द्रव्य यह निश्चित हुआ। शब्द में बाण आदि की तरह क्रियावानपना भी है, यदि शब्द क्रियावान नहीं होता, निष्क्रिय होता तो कर्ण से उसका सम्बन्ध नहीं हो सकने से कर्ण द्वारा शब्द का ग्रहण नहीं होता । शब्द का सम्बन्ध हुए बिना ही कर्ण उसे ग्रहण करता है ऐसा कहो तो कर्ण को अप्राप्यकारी मानना होगा, फिर “प्राप्यकारि-चक्षु, बाह्यन्द्रियत्वात् त्वम् इन्द्रियवत्" चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि वह बाह्य इन्द्रिय है, जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय है ऐसा कथन अनैकान्तिक होता है । अर्थात् स्पर्शन आदि पांचों ही इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं क्योंकि वे बाह्य न्द्रियां हैं ऐसा आप वैशेषिक मानते हैं किन्तु यहां कर्ण शब्द को बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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