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________________ प्राकाशद्रव्यविचारा २७१ कान्तिकत्वम् । सम्बन्धकल्पने श्रोत्रं वा शब्दोत्पत्तिप्रदेशं गत्वा शब्देनाभिसम्बध्येत, शब्दो वा स्वोत्पत्तिदेशादागत्य श्रोत्रेणाभिसम्बध्येत ? न तावद्धर्माधर्माभ्यां संस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धनभोदेशलक्षणश्रोत्रस्य शब्दोत्पत्तिदेशे गति:, तथा प्रतीत्य भावात्, निष्क्रियत्वाच्च । गतौ वा विवक्षितशब्दान्तराल वत्तिनामल्पशब्दानामपि ग्रहणप्रसङ्गः; सम्बन्धाविशेषात् । अनुवातप्रतिवाततिर्यग्वातेषु प्रतिपत्त्यप्रतिप्रत्तीषत्प्रतिपत्तिभेदाभावश्च, श्रोत्रस्य गच्छतस्तत्कृतोपकाराद्ययोगात् । नापि शब्दस्य श्रोत्रप्रदेशागमनम् ; निष्क्रियत्वोपगमात् । आगमने वा सक्रियत्वम् । सम्बद्ध किये-प्राप्त किये ग्रहण करता है ऐसा कहा अतः उक्त कथन व्यभिचरित होता है। तथा शब्द को अभिसम्बन्धित माना जाय तो सम्बन्ध करने के लिए गमनादि क्रिया कौन करेगा। कर्ण शब्द के उत्पत्ति स्थान पर जाकर शब्द से सम्बन्ध करेंगे, अथवा शब्द अपने उत्पत्ति स्थान [तालु, ओठ आदि] से आकर कर्ण के साथ सम्बन्ध स्थापित करेंगे ? शब्दोत्पत्ति स्थान पर कर्ण तो जा नहीं सकता, क्योंकि धर्म और अधर्मनामा अात्मा का जो अदृष्ट गुण है उसके द्वारा संस्कारित किया गया जो कर्ण पुट है उससे अवरुद्ध जो आकाश प्रदेश हैं उन्हें पाप कर्ण संज्ञा देते हैं। उस कर्ण का शब्दोत्पत्ति स्थान के पास जाना प्रतीत नहीं होता है, तथा उक्त कर्ण निष्क्रिय होने से गमन भी नहीं कर सकता है। यदि कर्ण गमन करता है तो उस विवक्षित शब्द के अंतरालवी अन्य अन्य जो शब्द रहेंगे उनका भी ग्रहण करने का प्रसंग आता है, क्योंकि उनके साथ भी सम्बन्ध हो गया है। यदि कर्ण शब्द स्थान पर प्राता है तो अनुकूल वायु के कारण भली प्रकार सुनाई देना-प्रतीति होना, प्रतिकूल हवा के चलने से शब्दों का सुनाई नहीं देना-प्रतीति नहीं होना, तिरछी हवा के कारण कुछ कुछ सुनाई देना इत्यादि रूप से शब्द के ग्रहण होने में जो भेद होता है वह किस प्रकार सम्भव होगा। क्योंकि कर्ण स्वयं ही शब्दके पास पाया है । कर्ण ही शब्दोत्पत्ति प्रदेश पर जा रहा है तो वायु द्वारा उसका उपकार आदि होने का भी प्रयोग होगा। दूसरा पक्ष कहे कि शब्द के पास कणं नहीं आता किन्तु शब्द ही कर्ण के पास आते हैं सो भी बात नहीं बनती, क्योंकि आप वैशेषिक ने शब्द को भी निष्क्रिय माना है । यदि शब्द कर्ण के पास आते हैं तो इसका मतलब क्रियावान है और क्रियावान है तो शब्द द्रव्यरूप ही सिद्ध हुअा। फिर उसे गुणरूप सिद्ध करने का प्रयास व्यर्थ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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