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________________ २६९ घाकाशद्रव्यविचारः स्वयं संख्यावत्त्वमन्तरेणाविरोधाऽसम्भवात् । किञ्च, विपरीतोपलम्भस्य बाधकस्य सद्भावे सत्युपचार कल्पना स्यात्, न चाग्नित्वरहितपुरुषस्येवैकत्वादिसंख्यारहितस्य शब्दस्योपलम्भोस्तीति कथमुपचारकल्पना ? तथापि तत्कल्पने अनुपचरितमेव न किञ्चित्स्यात् । तन्न संख्याश्रयत्वमप्यसिद्धम् । नापि संयोगाश्रयत्वम् ; वाय्वादिनाभिहन्यमानत्वात् पाश्वादिवत् । संयुक्ता एव हि पांश्वादयो वायुनान्येन वाऽभिहन्यमाना दृष्टाः । तेन तदभिघातश्च देवदत्त प्रत्यागच्छतः प्रतिवातेन प्रति निवर्त्त शंका-एक दो आदि पदार्थों के अनुसार अविरोधपने' से उन विषयों की संख्या का शब्द में उपचार हो जायगा ? समाधान- यह कथन अयुक्त है, स्वयं शब्द संख्यावान नहीं है अतः परकी संख्या से उसमें संख्या की अविरोधपनेरूप प्रवृत्ति होना असम्भव हो है । किञ्च, शब्द में संख्यावानपने से विपरीत जो असंख्यावानपना है उसका सद्भाव यदि होता तो कह सकते थे कि शब्द में जो एक दो अादि संख्या की प्रतीति पा रही है वह उपचरित है, किन्तु एकत्व आदि संख्या से रहित शब्द कभी उपलब्ध नहीं होते, फिर कैसे कहे कि शब्द में संख्या का उपचार होता है, जैसे कोई पुरुष है वह अग्नि रहित प्रतीत होता है फिर उसमें कदाचित् क्रोधावेश देखकर अग्नि का उपचार कर लेते हैं कि यह पुरुष तो अग्नि है। इसतरह शब्द में संख्या का उपचार होना अशक्य है, शब्द तो स्वयं ही संख्यायुक्त है । शब्द में स्वयं संख्या प्रतिभासित हो रही है तो भी उसे उपचरित बताया जाय तो अनुपचरित कोई वस्तु नहीं रहेगी सभी को उपचरित ही मानना पड़ेगा। अतः कहना होगा कि शब्द में स्वयं संख्या रहती है । इस तरह शब्द संख्या का प्राश्रय है ऐसा हमारा कहा हुआ हेतु असिद्ध नहीं है । शब्द संयोग का आश्रय है यह बात भी प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि शब्द वायु आदि से अभिहत होते हुए देखे जाते हैं जैसे कि धूल, कागज आदि पदार्थ वायु आदि से अभिहत होने से उसका धूलादि के साथ संयोग स्वीकार किया जाता है, जब धूल, पत्ते आदि पदार्थ वायु या हस्तादि से संयुक्त होते हैं तभी अभिहत-ताड़ित होते हुए देखे जाते हैं । शब्द का अभिघात भी होता है, कोई शब्द देवदत्त के पास प्राता हुना बीच में ही प्रतिकूल हवा के चलने से रुक जाता है जैसे मिट्टी धूलि आदि प्रतिकूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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