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________________ २६८ प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि सङ्ख्याश्रयत्वम् ; 'एकः शब्दो द्वौ शब्दौ बहव : शब्दाः' इति संख्यावत्त्वप्रतीतेघटादिवत् । प्रथोपचाराच्छब्दे संख्यावत्त्वप्रतीतिः; ननु किं कारण गता, विषयगता वा शब्दे संख्योपचर्येत ? कारणगता चेत् ; किं समवायिकारणगता, कारणमात्रगता वा ? पाद्यपक्षे 'एक: शब्द:' इति सर्वदा व्यपदेशप्रसङ्गस्तस्यैकत्वात् । द्वितीयपक्षे तु 'बहवः शब्दा:' इति व्यपदेशः स्यात्तस्य बहुत्वात् । विषयसंख्योपचारे तु गगनाकाशव्योमादिशब्दा बहुव्यपदेशभाजो न स्युर्गगनलक्षणविषयस्यैकत्वात् । पश्वादीनां च बहुत्वात् ‘एको गोशब्दः' इति स्वप्नेपि दुर्लभम् । यथाऽविरोधं संख्योपचारः; इत्यप्ययुक्तम् ; शब्द में संख्या का आश्रयपना भी असिद्ध नहीं है, शब्द में भी घट पट प्रादि पदार्थों के समान यह एक शब्द है, ये दो शब्द हैं, ये बहुत से शब्द हैं, इत्यादि संख्यावान की प्रतीति होती ही है। वैशेषिक-गब्द में एक दो आदि संख्या की जो प्रतीति होती है वह औपचारिक है ? जैन-अच्छा तो शब्द में संख्या का जो उपचार होता है वह किस संख्या का होता है, कारण में होने वाली संख्या का अथवा विषय में होने वाली संख्या का ? शब्द का जो कारण है उसकी संख्या का शब्द में उपचार होता है ऐसा कहो तो उसमें पुनः प्रश्न होता है कि समवायी कारण की संख्या का उपचार होगा या कारण मात्र की संख्या का उपचार होगा ? प्रथम पक्ष कहो तो "एकःशब्दः" एक शब्द है, ऐसा हमेशा शब्द का नाम रहेगा, क्योंकि शब्द का समवायी कारण जो आकाश माना है वह एक ही है अतः उसकी संख्या का आरोप शब्द में होगा तो शब्द भी सदा एक संख्यारूप रहेगा। दूसरा पक्ष-शब्द के जो जो कारण है उन सभी की संख्या का शब्द में उपचार किया जाता है ऐसा कहे तो “बहवः शब्दाः" बहुत शब्द हैं ऐसा नाम रहेगा, क्योंकि शब्द के कारण तो तालु आदि बहुत प्रकार के हैं । शब्द का जो विषय है अर्थात् शब्द द्वारा जो पदार्थ कहे जाते हैं उनकी संख्या का शब्द में उपचार करते हैं ऐसा द्वितीय विकल्प कहा जाय तो गगन, आकाश, व्योम इत्यादि शब्द बहु वचन वाले नहीं हो सकेंगे, क्योंकि इन गगन आदि शब्दों का विषय जो आकाश द्रव्य है वह एक ही है । तथा विषय की संख्या शब्द में उपचरित होती है तो पशु, वाणी, चन्द्र, किरण, राजा आदि बहुत से अर्थों में एक गो शब्दका प्रयोग स्वप्न में भी दुर्लभ होगा। क्योंकि पशु आदि विषय तो बहुत हैं और गो शब्द एक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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