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________________ श्रवयविस्वरूपविचार: चैत्रादेः । यत्र च प्रकारद्वयं व्यावृत्तं तत्र वृत्तेरभाव एव इति कथं न व्याप्तिर्यतोत्र प्रसंगसाधनस्यावकाशो न स्यात् ? निरस्ता चानेकस्मिन्नेकस्य वृत्तिः प्रागेव । यच्चोक्तम्-‘परेष्टिः प्रमाणमप्रमाणं वा' इत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; यतः प्रमाणाप्रमाणचिन्ता संवादविसंवादाधीना । परेष्टिमात्रेण च प्रतिपन्नेवयविनि संवादक प्रमाणाभावादप्रामाण्यं स्वयमेव भविष्यति । ननु च 'इहेदम्' इति प्रत्ययप्रतीतेः प्रत्यक्षेणैवावयविनो वृत्तिसिद्ध ेः कथं संवादकप्रमाणाभावो यतोस्याः प्रामाण्यं न स्यात् ? इत्यप्यसंगतम् ; तन्त्वाद्यवयवेषु व्यतिरिक्तस्य पटाद्यवयविन: २४३ सर्वदेश से रहना, सिद्ध नहीं होता तो अवयवी की सत्ता का ही प्रभाव है । अभिप्राय है कि अवयवों में अवयवी की वृत्ति एकदेश या सर्वदेश से होना सिद्ध होवे तो ही अवयवी का सत्त्व सिद्ध होगा, किन्तु यहां दोनों प्रकार से अवयवों में अवयवी की वृत्ति प्रसिद्ध है अत: उस वृत्ति के अभाव में अवयवी का प्रभाव सहज ही हो जाता है | इस तरह हम जैन प्रसंग साधनरूप अनुमान द्वारा वैशेषिक के अवयवी का निरसन करें तो वह किस प्रकार गलत होगा ? अर्थात् किसी प्रकार भी गलत नहीं होता है । सर्वथा एक निरंश ऐसा आपका अवयवी द्रव्य किसी तरह भी अनेक अवयवों में रहना संभव नहीं है, इस बात को तो पहले ही भली प्रकार कह चुके हैं । आपने पूछा कि परेष्टि[ परका इष्ट ] अर्थात् हमारे इष्ट अवयवी को प्रमाण मानते हो कि श्रप्रमाण इत्यादि, सो यह पूछना गलत है क्योंकि प्रमाण अप्रमाण का विचार तो संवाद और विसंवाद के अधीन है, परके इष्टरूप से ज्ञातु हुए अवयवी में संवादक प्रमाण का अभाव होने से उसका अप्रामाण्य स्वतः होगा । अर्थात् जब हम परके इष्ट अवयवी के विषय में कोई तत्व होगा ऐसा मानकर विचार करते हैं तो उस विचार ज्ञानका संवादक कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता है, इस तरह आपके अवयवी द्रव्य का प्रप्रामाण्य स्वयमेव सिद्ध होगा । वैशेषिक — प्रवयवी के लिए संवादक प्रमाण का अभाव होने से प्रप्रामाण्य सिद्ध होगा ऐसा जो जैन ने कहा वह ठीक नहीं है, अवयवी का संवादक प्रमाण मौजूद है, इह इदं प्रत्यय से अवयवी की अवयवों में रहने की प्रतीति होती है अर्थात् "इन अवयवों में अवयवी है" इस तरह का " इहेदं " प्रत्यय है इस प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा अवयवी की वृत्ति सिद्ध होती है अतः संवादक प्रमाण का प्रभाव कैसे हुआ ? जिससे कि जैन इस वृत्ति को प्रमाण कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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