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________________ २४२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे बाधा; तामन्तरेणास्याऽपक्षधर्मत्वात् । श्रथाप्रमाणम् ; तहि प्रमारणं विना प्रमेयस्यासिद्धिरित्यभिघातव्यम्, किमनुमानोपन्यासेनास्याऽपक्षधर्मतयाऽप्रमाणत्वात् ? इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; यतः प्रसंगसाधनमेवेदम् । तच्च 'साध्यसाधनयोर्व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः, व्यापकाभावो वा व्याप्याभावाविनाभावी' इत्येतत्प्रदर्शनफलम् । व्याप्य ] व्यापकभावसिद्धिश्चात्र लोकप्रसिद्धव । लोको हि कस्यचित्ववचित्सर्वात्मना वृत्तिमभ्युपगच्छति यथा बिल्वादेः कुण्डादो, कस्यचित्त्वेकदेशेन यथानेकपीठादिशयितस्य जो अवयवी है उसे माने बिना हेतु में अपक्षधर्मता कहलायेगी । भावार्थ यह है कि परवादी जो हम वैशेषिक है उसके अवयवी का खण्डन करने में आप जैन जो अनुमान उपस्थित करते हैं कि - अवयवी नहीं है, क्योंकि उसका ग्रवयवों में रहना किस तरह का है यह सिद्ध नहीं हो पाता है, सो इसमें धर्मी जो अवयवी है उसको न माना जाय तो हेतु पक्ष धर्मरूप ही बन जाता है । पर की इष्टता श्राप जैन को प्रमाण है तो इतना ही कहना चाहिए कि प्रमाण के बिना अवयवीरूप प्रमेय की सिद्धि नहीं होती है अवयवी नहीं है इत्यादि रूप अनुमान प्रमाण काहे को उपस्थित करना जो कि अपक्ष धर्मवाले हेतु से युक्त होने के कारण अप्रमाणभूत है ! जैन- -- अब यहां पर वैशेषिक के उपर्युक्त कथन का निराकरण करते हैं--- वैशेषिक ने सबसे पहले पूछा था कि अवयवी का खण्डन करने के लिए जैन जो अनुमान देते हैं वह प्रसंग साधन है क्या ? इत्यादि सो उसका उत्तर यह है कि यह अनुमान प्रसंग साधनरूप ही है, प्रसंग उसे कहते हैं कि साध्य और साधन में व्याप्य व्यापक भाव कहीं सिद्ध हुआ है और कभी किसी ने व्याप्य को स्वीकार किया है तब उसे व्यापक भी स्वीकार करना चाहिए ऐसा नियम बतलाना अथवा व्यापक का जहां अभाव है वहां व्याप्यका प्रभाव अवश्य है, इत्यादि सिद्ध करके बताना है । इस अवयव और अवयवी के विषय में व्याप्य व्यापक भाव तो लोक प्रसिद्ध ही है । इस जगत में किसी स्थान पर किसी पदार्थ की सर्वदेश से वृत्ति होती है जैसे कि बेल आदि फल की कुण्डा - बर्तनादि में सर्वदेश से वृत्ति हुआ करती है, तथा कोई पदार्थ की वृत्ति तो एकदेश से हुआ करती है, जैसे अनेक पीठ [ पलंगादि ] आदि में सुप्त हुए चैत्र नामा पुरुष की वृत्ति एकदेश से है। जहां पर ये दोनों प्रकार नहीं हो वहां तो पदार्थ का रहना [वृत्ति ] ही संभव है, इस प्रकार अवयवी का ग्रवयवों में एकदेश से रहना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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