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________________ अवयविस्वरूपविचारः वृत्त्या सत्त्वं व्याप्तम् ; समवायवृत्त्यनभ्युपगमेपि भवता रूपादे : सत्त्वाभ्युपगमात् । एकदेशेन सर्वात्मना वावयविनो वृत्तिप्रतिषेधे विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञाविषयत्वात् प्रकारान्तरेण वृत्तिरभ्युपगता स्यात्, अन्यथा 'न वर्तते' इत्येवाभिधातव्यम् । वृत्तिश्च समवायः, तस्य सर्वत्रैकत्वानिरवयवत्वाच्च कात्स्न्यैकदेशशब्दाविषयत्वम् । अथ प्रसंगसाधनं परस्येष्ट याऽनिष्टापादनात् । ननु परेष्टि: प्रमाणम्, अप्रमाणं वा ? यदि प्रमाणम् ; हि तयैव बाध्यमानत्वादनुत्थानं विपरीतानुमानस्य । न चानेनैवास्या प्रसंगसाधन वाला अनुमान ? स्वतन्त्र साधन वाला अनुमान कहो तो धर्मी और साध्य पद का व्याघात होगा, अर्थात् "अवयवी" यह तो धर्मी है और "नास्ति-नहीं" यह हेतु है, सो ये दोनों पद परस्पर विरुद्ध जैसे मालुम पड़ते हैं जिस प्रकार "इदं च नास्ति च" यह और पुनः नास्ति-नहीं कहना परस्पर विरुद्ध पड़ता है। तथा "अवयवी नहीं है" ऐसे साध्य में बनाया गया हेतु आश्रयासिद्ध भी कहलायेगा, क्योंकि हेतु का आश्रयधर्मी जो अवयवो है वह अप्रसिद्ध है। तथा आप जैन के यहां पर समवाय के साथ सत्वकी व्याप्ति नहीं होने से यह भी नहीं कह सकते कि समवाय से अययवों में अवयवी रह जायगा और उसकी सत्ता सिद्ध होगी, क्योंकि आप समवाय से अवयवों में अवयवी का सत्व नहीं मानकर भी उसमें रूपादि का सत्व स्वीकार किया है, अर्थात् आप समवाय से सत्व होना न मानकर तादात्म्य से सत्व मानते हैं। दूसरी बात यह भी है कि जब जैन ने एकदेश और सर्वदेश दोनों तरह से अवयवी का रहना निषिद्ध किया है, सो इन एकदेश वृत्ति आदि का निषेध होने पर भी शेष वृत्ति सामान्य किसी रूप से रहना तो निषिद्ध नहीं होता, वह स्वीकृत ही कहलाया ? अन्यथा आपको इतना ही कहना था कि अवयवी [अवयवों में] रहता ही नहीं ! हम तो अवयवों में अवयवी समवाय से रहता है ऐसा मानते हैं और यह जो समवाय है वह सर्वत्र एकरूप तथा निरवयव है अतः उसमें एकदेश से रहता है या सर्वदेश से रहता है इत्यादि शब्दों का विषयपना घटित नहीं होता है। दूसरा विकल्प कहो कि अवयवी का खण्डन करने में प्रयुक्त अनुमान प्रसंग साधनभूत है-पर की इष्टता को लेकर उसी का अनिष्ट सिद्ध कर देना प्रसंग साधन कहलाता है, सो इस विषय में प्रश्न है कि आप जैन को परवादी की परेष्टि इष्ट मान्यता प्रमाण है कि अप्रमाण है ? यदि प्रमाण है तो उस प्रमाणभूत परेष्टि से ही आपका अनुमान बाध्यमान होने से प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। क्योंकि इस अनुमान में "अवयवी नहीं है" इत्यादि रूप विपरीत साध्य है । तुम कहो कि हमारे इस अनुमान से ही पर की इष्टता में बाधा आती है। सो भी गलत है, परवादी का इष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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