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________________ २४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे समवायवृत्तः स्वप्नेप्यप्रतीतेः । न च भेदेनाप्रतिभासमानस्य 'इहेदं वर्तते' इति प्रतीतिर्युक्ता। न हि भेदेनाप्रतिभासमाने कुण्डे 'इह कुण्डे बदराणि' इति प्रत्ययो दृष्टः । यद्य (द) प्यक्तम्-वृत्तिश्च समवायस्तस्य सर्वत्रैकत्वानिरवयवत्वाच्च कात्स्न्यैकदेशशब्दा विषयत्वमिति ; तदपि स्वमनोरथमात्रम् ; समवायस्याग्ने प्रबन्धेन प्रतिषेधात् । ननु तथाप्येकस्मिन्नवयविनि कात्स्न्यैकदेशशब्दाप्रवृत्त रयुक्तोयं प्रश्न:-'किमेकदेशेनप्रवर्तते कात्स्न्येन वा' इति । कृत्स्नमिति ह्य कस्याशेषाभिधानम्, 'एकदेशः' इति चानेकत्वे सति कस्यचिदभिधानम् । ताविमौ कात्स्न्यैकदेशशब्दावेकस्मिन्नवयविन्यनुपपन्नौ ; इत्यप्यसमीचीनम् ; एकत्रैकत्वेनावयविनोऽप्रतिभासमानात प्रकारा जैन-यह कथन असंगत है-तन्तु प्रादि अवयवों में सर्वथा भिन्न ऐसा पट आदि अवयवी समवाय से रहता हो, ऐसा स्वप्न में भी प्रतीत नहीं होता है [ प्रत्यक्ष की बात दूर रही ] जो भेदपने से प्रतिभासित नहीं होता उसकी "इहेदं वर्त्तते" "यहां पर यह रहता है" ऐसी प्रतीति होना अशक्य है जो भेदरूप से प्रतीत नहीं होता ऐसे ऊकले कुण्डा आदि पात्र विशेष में "इह कुण्डे बदराणि" इस कुण्ड में बेर हैं, ऐसा प्रतिभास नहीं होता है। वैशेषिक ने कहा कि-समवाय से अवयवो की वृत्ति है, समवाय तो सर्वत्र एक तथा निरंश है अतः समवाय से संबद्ध होने वाले अवयवी के विषय में यह प्रश्न नहीं उठा सकते कि एकदेश से रहता है या सर्वदेश से । इत्यादि सो यह कथन मनोरथ मात्र है, आपके इस समवाय नामा पदार्थ का आगे विस्तार से खण्डन होने वाला है। वैशेषिक-ठीक है, किन्तु अवयवी को जब हम एक मानते हैं तब उसमें एकदेश और सर्वदेश यह शब्द ही प्रयुक्त नहीं हो सकते अत: एकदेश से रहता है कि सर्वदेश से रहता है । इत्यादि प्रश्न करना व्यर्थ है. इसी बात का खुलासा करते हैं "कृत्सन-सर्व" यह जो शब्द है वह एक के अशेष को कहता है, तथा “एकदेश" यह शब्द अनेकपना होने पर [अनेक देशत्व होने पर उनमें से कोई एकदेश को कहता है। इस तरह के ये जो एकदेश और सर्वदेश शब्द हैं, इन शब्दों का प्रयोग निरंश एक अवयवी में बन ही नहीं सकता है ? जैन-यह बात असत् है, एक जगह अर्थात् अवयवों में आपका इष्ट एक अवयवी प्रतिभासित ही नहीं हो रहा है, तथा अवयवी और किसी प्रकार से रहता हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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