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________________ २३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ध्यास्ते, एकावयवक्रोडीकृतं चावयविस्वरूपमिति । वृत्तौ वान्यत्र अत्रावयवे वृत्त्यनुपपत्तिरपरस्वभावाभावात् । एकावयवसम्बद्धस्वभावस्याऽतद्देशावयवान्तरसम्बन्धाभ्युपगमे च तदवयवानामेकदेशतापत्तिः, एकदेशतायां चकात्म्यमविभक्तरूपत्वात् । विभक्तरूपावस्थितौ चैकदेशत्वं न स्यात् । अथ स्वभावान्तरेणासाववयवान्तरे वर्तते ; तदास्य निरंशताव्याघातः, कथञ्चिदने कत्वप्रसङ्गश्च, स्वभावभेदात्मकत्वाद्वस्तुभेदस्य । ते च स्वभावा यद्यतोऽर्थान्तरभूताः; तदा तेष्वप्यसौ स्वभावान्तरेण वर्ततेत्यनवस्था । अथानन्तरभूताः; तमु वयवै : किमपराद्ध येनेते तथा नेष्यन्ते ? तदिष्टौ वावयविनोऽनेकत्वमनित्यत्वं च स्वशिरस्ताडं पूत्कुर्वतोप्यायातम् । इस पहले अवयव में नहीं रह सकेगा, क्योंकि अवयवी में एक से अधिक स्वभाव नहीं है तथा केवल एक अवयव में सम्बद्ध हुआ अवयवी अन्य देश में नहीं रह कर ही अवयवांतरों से सम्बन्ध करता है ऐसा मानते हैं तो वे सारे ही अवयव एक देशरूप बन जायेंगे, और एक देशरूप बनने पर अविभाज्य होने से एक स्वरूप एकमेक कहलायेंगे । कोई कहे कि अवयव तो विभाज्य-विभक्त होने योग्य ही हुमा करते हैं तो फिर उनमें एकदेशपना नहीं हो सकेगा। यदि दूसरा पक्ष कहा जाय कि अवयवी भिन्न भिन्न स्वभाव से अन्य अवयवों में रहता है तो यह अवयवी निरंश नहीं रहा, सांश हो गया । तथा कथंचित् अनेक भी बन गया । क्योंकि जहां स्वभावों में भेद है वहां वस्तुभेद होता है। अब यह देखना है कि वे भिन्न भिन्न स्वभाव अवयवो से अर्थान्तरभूत-पृथक् हैं क्या ? यदि हां तो उन भिन्न स्वभावों में अवयवी स्वभावान्तर से रहेगा सो अनवस्था आती है, तथा वे भिन्न भिन्न स्वभाव अवयवी से अनर्थान्तर-अपृथक् हैं तो अवयवों ने क्या अपराध किया है कि जिससे उन्हें अवयवो से अनर्थान्तरभूत [अपृथक्भूत] रहना नहीं मानते ? अर्थात् जैसे अवयवी स्वभावान्तरों में अपृथक्पनेसे रहता है वैसे अवयव भी उसमें अभिन्न या अपृथक्पने से रहेंगे और इस तरह एक अवयवी में अनेक अवयव अभिन्नपने से रहते हैं तो अवयवी अनेक स्वभाव वाला तथा अनित्य स्वभाव वाला [कथंचित् ] सिद्ध होता ही है। अर्थात् वैशेषिक यदि अवयवी को अवयवों में अभिन्नपने से रहना स्वीकार करते हैं तो उनके मत में भी जैन के समान अवयवी के अनेकपना एवं अनित्यपना सिद्ध होता है, फिर चाहे वैशेषिक अपना शिर ताड़ित कर करके रुदन करें, तो भी अवयवी का अनेकत्व और अनित्यपना रुक नहीं सकता, वह तो अनेक स्वभाव वाला और अनित्य स्वभाव वाला सिद्ध होता ही है। वैशेषिक से हम जैन पूछते हैं कि आप अवयवी को सर्वथा अविभागी मानते हैं सो उस अवयवी के एक देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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