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________________ अवयविस्वरूपविचार! २३७ सकृन्निरंशैकद्रव्यान्वितम् यथा कुटकुड्यादि, अनेकद्रव्याणि चावयवा इति । अस्तु वाने कत्रावयविनो वृत्तिः, तथाप्यस्यासौ सर्वात्मना, एकदेशेन वा स्यात् ? यदि सर्वात्मना प्रत्येकमवयवेष्ववयवी वर्तत; तदा यावन्तोऽवयवास्तावन्त एवावयविनः स्युः, तथा चानेककुण्डादिव्यवस्थितबिल्वा दिवदनेकावयव्युपलम्भानुषङ्गः । अथैकदेशेन; अत्राप्यस्यानेकत्र वृत्तिः किमेकावयवक्रोडीकृतेन स्वभावेन, स्वभावान्तरेण वा स्यात् ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; तस्य तेनैवावयवेन क्रोडीकृतत्वेनान्यत्र वृत्त्ययोगात् । प्रयोग:-यदेकक्रोडीकृतं वस्तुस्वरूपं न तदेवान्यत्र वर्तते यथैकभाजन क्रोडोकृतमाम्रादि न तदेव भाजनान्तरमध्यम अनेक द्रव्यों के आश्रित नहीं होता है, आपने अवयवी नामा द्रव्यको निरंश एक स्वभाव वाला माना है, अतः वह एक बार में अनेक द्रव्यों के आश्रित नहीं रह सकता । दूसरा अनुमान प्रमाण भी इसीको सिद्ध करता है जो अनेक द्रव्य स्वरूप होता है वह एक साथ निरंश एक द्रव्य से युक्त नहीं हो पाता, जैसे घट, मित्ति आदि अनेक द्रव्य हैं अतः एक बार में एक निरंश द्रव्य से युक्त नहीं होते हैं, अवयव भी अनेक द्रव्यरूप हैं इसलिए निरंश एक द्रव्य से अन्वित नहीं हो सकते । दुर्जन संतोष न्याय से मान भी लेवे कि आपका इष्ट एक हो अवयवी अनेक में रह जाता है, किन्तु फिर यह बताना चाहिए कि यह अवयवी अवयवों में सर्ददेश से रहेगा कि एक देशसे रहेगा ? सर्वदेश से रहना माने तो प्रत्येक अवयव अवयव में अवयवी चाहिए, सो जितने अवयव हैं उतने अवयवी बन जायेंगे। फिर तो जैसे अनेक कुण्डों में रखे हुए बेल, आम, अमरूद, बेर आदि अनेक पदार्थों की तरह अनेक अनेक अवयवी दिखायी देने लगेंगे। यदि दूसरा पक्ष माना जाय कि अवयवों में अवयवी एक देश से रहता है तो इस पक्ष में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं, अवयवों में अवयवी एकदेश से वर्त्त रहा है सो एक अवयव को अपने में लेकर रहना रूप स्वभाव से रहेगा, या अन्य कोई स्वभाव से रहेगा? प्रथम बात ठोक नहीं क्योंकि अवयवी एक ही अवयव को अपने में समाये रखेगा तो वह अन्य अन्य अवयवों में रह नहीं सकेगा। अनुमान से यही बात सिद्ध होगी-जो वस्तु स्वरूप एक को समाये रखता है वही वस्तु स्वरूप अन्य जगह नहीं रह सकता, जैसे एक बर्तन में समाये हुए आम, जामन पदार्थ हैं वे ही अन्य अन्य बर्तनों में रह नहीं सकते हैं, इसी तरह का वैशेषिक द्वारा मान्य एक अवयव को समाये रखने वाला अवयवी का स्वरूप है, अतः वह अन्य अवयवों में नहीं रह सकता। यदि रहेगा तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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