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________________ २३६ प्रमेयकमलमार्तण्डे ध्यक्षरूपत्वस्यैवासिद्धेः । अक्षाधितं विशदस्वभावं हि प्रत्यक्षम्, न चास्यैतल्लक्षणमस्तीति। प्रक्षाश्रितत्वे चास्याखिलावयवव्याप्यवयविस्वरूपग्राहकत्वासम्भवः; अक्षाणां सकलावयवग्रहणे व्यापारासम्भवात् । न च स्मरणसहायस्यापीन्द्रियस्याविषये व्यापारः सम्भवति । यद्यस्याविषयो न तत्तत्र स्मरणसहायमपि प्रवर्त्तते यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धे, अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां परभागभाव्यवयवसम्बन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति । न चानेकावयवव्यापित्वमेकस्वभावस्यावय विनो घटते; तथा हि-यन्निरंशैकस्वभावं द्रव्यं तन्न सकृदनेकद्रव्याश्रितम् यथा परमाणु, निरंशैकस्वभावं चावयविद्रव्यमिति । यद्वा, यदनेक द्रव्यं तन्न हा भाग स्मरण में रहने से उस स्मरण की सहायता से उत्पन्न हुआ इन्द्रिय ज्ञान प्रत्यभिज्ञान नामा ज्ञानको प्राप्त होता है, जिसमें "वही यह है" ऐसा प्रतिभास होता है, सो इस तरह के प्रत्यक्षज्ञान द्वारा अवयवी के पूर्वापर अवयवों का ग्रहण हो जाया करता है ? जैन-यह कथन असत् है, प्रत्यभिज्ञानको प्रत्यक्षज्ञान मानना अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है, इंद्रियों के आश्रित का जो ज्ञान विशद स्वभाव वाला होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है, ऐसा विशद लक्षण प्रत्यभिज्ञान के नहीं है तथा इस प्रत्यभिज्ञानको इन्द्रियाश्रित मानेंगे तो संपूर्ण अवयवों में व्यापक जो अवयवीका स्वरूप है उसे वह ग्रहण नहीं कर सकेगा। क्योंकि इन्द्रियां संपूर्ण अवयवों को ग्रहण करने में प्रवृत्त नहीं होती, इसका भी कारण यह है कि संपूर्ण अवयव इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। स्मरण ज्ञानकी सहायता से इन्द्रियां उन अवयवोंरूप अविषय में प्रवृत्त हो जायगो ऐसा कहना भी अशक्य है, क्योंकि जो जिसका अविषय है उसमें वह ज्ञान स्मरणकी सहायता लेकर भी प्रवृत्त नहीं हो सकता है, जैसे सुगन्ध के स्मरणज्ञान की सहायतायुक्त नेत्र भी गन्ध विषय में प्रवृत्त नहीं होते हैं। परभाग में होने वाले अवयवों सम्बन्धी अवयवी का व्यवहित स्वभाव इन्द्रियों का अविषय ही है [विषय नहीं है ] अतः इन्द्रियां उसको जान नहीं सकती हैं। श्राप वैशेषिक के यहां अवयवी का जो स्वरूप बताया है वह घटित नहीं होता है, आप अनेक अवयवों में व्यापक एक स्वभाव वाला अवयवी मानते हैं, अब इसीको बताते हैं-जो निरंश एक स्वभाव वाला द्रव्य होता है वह एक साथ अनेक द्रव्यों के आश्रित नहीं रह सकता, जैसे परमाणु निरंश एक द्रव्य है तो वह एक साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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