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________________ अवयविस्वरूपविचारः २३६ यदि चावयव्यविभागः स्यात्तदैकदेशस्यावरणे रागे च अखिलस्यावरणं रागश्चानुषज्यते, रक्तारक्तयोरावृतानावृतयोश्चावयविरूपयोरेकत्वेनाभ्युपगमात् । न चैवं प्रतीतिः, प्रत्यक्षविरोधात् । न चान्योन्यं विरुद्धधर्माध्यासेप्येक युक्तम्, अत एव, अनुमानविरोधाच्च । तथाहि-यद्विरुद्धधर्माध्यासितं तन्नकम् यथा कुटकुड्याद्युपलभ्यानुपलभ्यस्वभावम्, प्रावृतानावृतादिस्वरूपेण विरुद्धधर्माध्यासितं चावय विस्वरूपमिति । तथाप्येकत्वे विश्वस्यै कद्रव्यत्वानुषङ्गः । ननु वस्त्रादे रागः कुकुमादिद्रव्येण संयोगः; स चाव्याप्यवृत्तिस्तत्कथमेकत्र रागे सर्वत्र राग एकदेशावरणे सर्वस्यावरणम् ? तदप्यसारम् ; यतो यदि पटादि निरंशमेकं द्रव्यम्, तदा कुकुमादिना पर आवरण आया अथवा कोई रंग चढ़ा तो सारे ही अवयवी के आवरण और रंग लग जायगा। क्योंकि आपने रक्त और अरक्त अवस्था, तथा आवृत और अनावृत अवस्था इनमें अवयवी को एक रूप ही मान लिया है किन्तु ऐसी प्रतीति नहीं होती कि रंगा हुअा अवयवी का भाग और नहीं रंगा हुअा भाग एक हो, ऐसा एकत्व बिना प्रतीति के कैसे माने ? प्रत्यक्ष विरोध पाता है। तथा परस्पर में विरुद्ध धर्माध्यास युक्त होते हुए भी उस अवयवी में निरंश एकरूपता मानना शक्य नहीं, क्योंकि जिसमें विरुद्ध धर्माध्यास हो वह निरंश एक हो नहीं सकता, तथा ऐसा मानने में अनुमान प्रमाण से बाधा भी पाती है आगे इसी को दिखाते हैं जो वस्तु विरुद्ध धर्माध्यासित होती है वह एक नहीं होती, जैसे घट और भित्ति आदि में उपलभ्य स्वभाव और अनुपलभ्य स्वभावरूप विरुद्ध धर्माध्यासपना होने से एकत्व नहीं है, ऐसे ही अवयवी का स्वरूप प्रावृत्त और अनावृत्त स्वभावरूप विरुद्ध धर्माध्यास युक्त है अतः वह भी एकरूप नहीं है । इस तरह अनुमान से अवयवी में एकत्व सिद्ध नहीं होता है अनेकत्व ही सिद्ध होता है, फिर भी यदि उसे एकरूप माना जाय तो सारे विश्व को ही एक द्रव्यरूप मानना होगा । वैशेषिक--अवयवी के रंगा नहीं रंगा आदि भाग की जो बात कही उसमें हमारा यह कहना है कि वस्त्र प्रादि अवयवी द्रव्य की जो रक्तिमा है वह तो कुकुम आदि अन्य द्रव्य के साथ संयोग होना है, संयोग जो होता है वह अव्याप्य वृत्ति वाला हुआ करता है, अतः एकदेश में रंगीन होने पर सर्वदेश में रंगीन होना, या एकदेश में आवरण युक्त होने पर सर्वत्र प्रावरण युक्त होना किस प्रकार सिद्ध होगा, नहीं हो सकता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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