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________________ २२२ प्रमेयकमलमार्तण्डे तदसमवायिकारणम्, यथा पटारम्भे तन्तुसंयोगः, पटसमवेतरूपाद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपादि च । शेषं तूत्पादकं निमित्तकारणम्, यथाऽदृष्टाकाशादिकम् । तत्र संयोगस्याऽपेक्षणीयस्याभावादविकल कारणत्वमसिद्धम् ; तदप्यसाम्प्रतम् ; संयोगादिनाऽनाधेयातिशयत्वेनाऽणूनां तदपेक्षाया प्रयोगात् । नित्य द्वयणुक आदि कार्य द्रव्यों के जनकरूप एक स्वभाव वाले मानते हैं सो उसमें यह आपत्ति आती है कि उनसे होने वाले कार्य एक साथ उत्पन्न हो जायेंगे। क्योंकि अविकलकारण मौजूद है। अनुमान से सिद्ध होता है कि जिनका अविकल-पूर्ण कारण मौजूद रहता है वे कार्य एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, जैसे समानकाल में उत्पन्न हुए बहुत से अंकुर रूप कार्य अपने अविकल कारणों के मिलने से एक साथ पैदा होते हैं पृथिवी आदि द्रव्यों को अणुनों के कार्यरूप मानने से वे भी अविकल कारणभूत कहलाते हैं । अर्थात् नित्य परमाणुओं का कार्य होने से पृथिवी आदि पदार्थ अविकल कारणवाले ही सिद्ध होते हैं। इस तरह अविकल कारण सामग्री युक्त होकर भी यदि इन पृथिवी आदि कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है तो सर्वदा ही उत्पत्ति नहीं होगी। क्योंकि अविकल कारणपना सर्वदा समानरूप से है सर्वथा नित्य में विशेषता नहीं श्राती जिससे कहा जाय कि पहले कार्य नहीं हो पाया किन्तु अब विशेषता पाने से कार्य सम्पन्न हुआ। वैशेषिक- कार्य के उत्पत्ति की बात ऐसी है कि कार्य के लिये कारण तीन प्रकार के होते हैं- समवायी कारण, असमवायी कारण, निमित्त कारण, जहां पर कार्य समवेत होता है वह समवायीकारण कहलाता है, जैसे द्वयणुकरूप कार्य का समवायी कारण दो परमाणु हैं । जो एक कार्यभूत पदार्थ में समवेत होकर कार्य को उत्पन्न करे, अथवा कार्य और कारणभूत एकार्थ में समवेत होकर कार्य को पैदा करे वह असमवायी कारण कहलाता है, जैसे वस्त्र के प्रारम्भ में तन्तुओं का संयोग होना असमवायो कारण है, अथवा पट में समवेत जो रूपादि है उनके प्रारम्भ में पटोत्पादक तन्तुओं के रूपादिक है वह भी असमवायो कारण कहलाता है। समवायी और असमवायी कारण को छोड़ शेष कारण निमित्त कारण कहे जाते हैं, जैसे अदृष्ट, प्राकाशादिक निमित्त कारण हैं। इन तीन कारणों में से संयोग नामा असमवायी कारण नहीं होने से पृथिवी आदि पदार्थ अविकल कारण वाले नहीं कहलाते, और इसीलिये इन कार्यों की एक साथ उत्पत्ति नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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