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________________ परमाणुरूप नित्यद्रव्यविचारः २२३ अथ संयोग एवामीषामतिशयः; स किं नित्य:, अनित्यो वा ? नित्यश्चेत्; सर्वदा कार्योत्पत्तिः स्यात् । श्रनित्यश्चेत्; तदुत्पत्ती कोऽतिशयः स्यात्संयोग:, क्रिया वा ? संयोगश्चेत्कि स एव, संयोगान्तरं वा ? न तावत्स एव अस्याद्याप्यसिद्ध:, स्वोत्पत्तौ स्वस्यैव व्यापारविरोधाच्च । नापि संयोगान्तरम् ; तस्यानभ्युपगमात् । श्रभ्युपगमे वा तदुत्पत्तावप्यपरसंयोगातिशयकल्पनायामनवस्था । नापि क्रियातिशय: ; तदुत्पत्तावपि पूर्वोक्तदोषानुषङ्गात् । जैन - यह कहना असत् है, परमाणुत्रों का परमाणुत्रों के साथ जो संयोग है वह अनाधेय अतिशय है, परमाणुत्रों के ऐसे संयोग की अपेक्षा होना असंभव है । भावार्थ - पृथिवी आदि के परमाणुओं को वैशेषिक सदा सर्वथा कूटस्थ नित्य मानता है, जो कूटस्थ पदार्थ है वह किसी प्रकार के परिवर्तन कराने योग्य नहीं होता, उसमें किसी की अपेक्षा भी सम्भव नहीं, फिर कैसे कह सकते हैं कि पृथिवी आदि कार्य को संयोग नामा श्रसमवायी कारण नहीं मिलने पर वह कार्य नहीं होता, इत्यादि जो सर्वथा नित्य वस्तु होती है उसमें प्रतिशयपना भी नहीं है अतः नित्य परमाणु यदि पृथिवो आदि कार्यों के प्रारम्भक है तो एक साथ ही सब कार्यों को कर डालने का प्रसंग आता हो है इस दोष को हटाने के लिये समवायी प्रादि तीन प्रकार के कारण बतलाकर संयोगरूप श्रसमवायी कारण हमेशा तथा एक साथ नहीं मिलने से सब कार्य एक साथ नहीं होते ऐसा कहना कुछ भी सिद्ध नहीं होता है । यदि कहा जाय कि संयोग होना ही परमाणुत्रों का अतिशय कहलाता है ? तो बताइये कि वह संयोग नित्य है या अनित्य है ? नित्य कहो तो सर्वदा कार्य उत्पन्न होते ही रहेंगे । अनित्य कहो तो उस अनित्य संयोग की उत्पत्ति में क्या अतिशय या कारण होगा ? परमाणुत्रों का संयोग ही संयोग प्रतिशय है अथवा परमाणुत्रों की क्रिया संयोग अतिशय है ? संयोग कहो तो वह कौनसा है वही संयोग है याकि संयोगांतर है ? ऐसा कहो तो वही अभी तक व्यापार कर नहीं सकता । परमाणुत्रों का संयोग ही उसके उत्पत्ति में कारण है प्रसिद्ध है तथा स्वयं संयोग संयोग को उत्पत्ति में परमाणुओं के संयोग की उत्पत्ति में संयोगान्तर कारण है, ऐसा कहो तो और कोई संयोगान्तर आपने माना नहीं है । यदि संयोगान्तर स्वीकार करते हैं तो उसकी उत्पत्ति के लिये भी अन्य संयोग की अतिशयरूप कल्पना करनी पड़ने से अनवस्था प्रायेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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