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________________ २१२ प्रमेयकमलमार्तण्डे तत्सापेक्षयोरेव तदभ्युपगमात्, तथाप्रतीतेश्च । नापि सङ्करव्यतिकरौ; स्वरूपेणैवार्थे तयोः प्रतीते: । नाप्यनवस्था; 'धम्मिणो ह्यनेकरूपत्वं न धर्माणां कथञ्चन' इति, वस्तुनो ह्यभेदो धर्येव, भेदस्तु धर्मा एव, तत्कथमनवस्था ? भावार्थ - एक वस्तु में भेदाभेद मानने में उभय नामा दोष आता है, ऐसा वैशेषिकने कहा था, उभय दोष का स्वरूप इस तरह बतलाया कि वस्तु में भेद और अभेद सर्वथा एकात्मकपने से रहते हैं तो उसमें अनेकत्व का अभाव होगा, तथा वे सर्वथा अनेकात्मपने से रहते हैं तो एकत्व का अभाव होता है, सो यह दोष जैनाभिमत वस्तु में आना असंभव है, क्योंकि वस्तु में जो भेदाभेद रहते हैं उनके रहने का तरीका ही अलग है, जैसे एक पुरुष चोर है और एक पुरुष पर स्त्री सेवक है सो इन दो प्रकारके पुरुषों में सदोषता है किन्तु इन दो से न्यारा कोई पुरुष परस्त्री सेवी नहीं और चोर भी नहीं तो वह पुरुष उपर्युक्त दोनों पुरुषों से न्यारा ही कहलायेगा, क्योंकि उसमें सदोषता नहीं है, इसी प्रकार भेद और अभेद को या सत्व असत्व इत्यादि धर्मों को एक वस्तु में सर्वथा एकमेकरूप मानते हैं या सर्वथा अभिन्नरूप मानते हैं तो उसमें दोष पाते हैं किन्तु इनसे पृथक् कथंचितरूप से एक वस्तु में रहना माने तो कोई भी दोष नहीं आता है, क्योंकि यह स्याद्वाद अपेक्षा लेकर कथन करता है और वस्तु में भी स्वयं इसी प्रकार की अनेक धर्मात्मक है, वह स्वयं ही अनेक विरोधी धर्मों को अपने में समाये रखती है, इसीलिये स्याद्वाद उसका वैसा ही वर्णन किया करता है। __ जैन भेद और अभेद या सत्व और असत्व इनको परस्परकी अपेक्षा से रहित नहीं मानते, अर्थात् ये दोनों धर्म परस्पर निरपेक्ष होकर एकत्व रूप रहते हैं ऐसा नहीं मानते हैं, जिससे कि यह उभय दोष आवे । हम तो सापेक्ष भूत सत्वासत्व में ही एकत्व स्वीकार करते हैं। तथा वस्तु में ऐसे सापेक्ष सत्व असत्वादि की प्रतीति भी भली प्रकार से होती है। भेद अभेद आदि को एकत्र मानने में संकर व्यतिकर नामा दोष देना भी अयुक्त है, क्योंकि वस्तु में स्वरूप से ही उन दोनों की प्रतीति पा रही है। अनवस्था दोष भी भेदाभेदात्मक वस्तु में दिखाई नहीं देता, क्योंकि धर्मी पदार्थ के ही अनेक रूपत्व माना है न कि धर्मों के, तथा वस्तु के जो अभेदपना है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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