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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः प्रभावदोषस्तु दूरोत्सारित एव; अशेषप्राणिनामनेकान्तात्मकार्थस्यानुभवसम्भवात् ।
ननु शरीरेन्द्रियबुद्धिव्यतिरिक्तात्मद्रव्यस्येच्छादिगुणाश्रयस्य नित्यकरूपत्वात्कथं सर्वस्यानेकान्तात्मकत्वम् ? न च नित्यकरूपत्वे कर्तृत्वभोक्तृत्वजन्ममरणजीवनहिंसकत्वादिव्यपदेशाभावः; ज्ञानचिकोर्षाप्रयत्नानां समवायो हि कर्तृत्वम्, सुखादिसंवित्समवायस्तु भोक्तृत्वम्, अपूर्वैः शरीरेन्द्रियबुद्धयादिभिश्चाभिसम्बन्धो जन्म, प्राणात्तैस्तैस्तु वियोगो मरणम्, जीवनं तु सदेहस्यात्मनो धर्माधर्मापेक्षो मनसा सम्बन्ध :, हिंसकत्वं च शरीरचक्षुरादीनां वधान्न पुनरात्मनो विनाशात् । तथा च सूत्रम्
धर्मी ही है, धर्म तो भेदरूप ही है, इस तरह मानने में किस प्रकार अनवस्था होगी ? अर्थात् नहीं होगी।
अभाव नामा दोष तो जैनाभिमत तत्व में दूर से ही निराकृत हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक प्राणियों को अनेक धर्मात्मक हो वस्तु प्रतीति में आ रही है।
___ अब यहां पर वैशेषिक अपना एकान्तपने का पक्ष पुनः उपस्थित कर रहा है
वैशेषिक-शरीर, इन्द्रियां, बुद्धि इन सबसे आत्म द्रव्य सर्वथा पृथक् होता है, यह द्रव्य इच्छा आदि गुणों का पाश्रय हुआ करता है, एवं सदा सर्वथा नित्य एक रूप रहता है, फिर कैसे कह सकते हैं कि सभी द्रव्य या पदार्थ अनेकान्तात्मक ही होते हैं ? जैन का कहना है कि यदि आत्मादि द्रव्य को नित्य एक रूप मानते हैं तो उसमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व, जन्म, मरण, जीवन, हिंसकत्व इत्यादि नाम किस प्रकार हो पायेंगे । सो ऐसी बात नहीं है, हम अात्मा में इन कर्तापना आदि को घटित करके बतलाते हैंज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न इनका आत्मा में समवाय होना कर्त्तापन है, सुखादि संवेदन का समवाय होना भोक्तृत्व कहलाता है, नवीन शरीर, इन्द्रियां, बुद्धि प्रादि का प्रात्मा में सम्बन्ध होना प्रात्मा का जन्म कहलाता है. और इन्हीं शरीर आदि से आत्मा का वियुक्त होना मरण है, शरीर सहित प्रात्मा के धर्म-अधर्म की अपेक्षा लेकर मन से सम्बन्ध होना जीवन कहा जाता है, शरीर तथा चक्षु आदि इंद्रियों का वध करना हिंसकपना है, प्रात्मा का वध तो होता नहीं, अर्थात् शरीरादिका घात होने से ही हिंसकपना होता है न कि प्रात्मा के विनाश से हिंसकपना होता है ( क्योंकि प्रात्मा अविनाशी है ) “कार्याश्रयकर्तृवधाद् हिंसा" ऐसा न्याय सूत्र है अर्थात् कार्यों का
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