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________________ अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः २११ वायित्वात् । नापि विशेषणभावेन; सम्बन्धान्तरेणासम्बद्ध वस्तुनि विशेषणभावस्याप्यसम्भवात्, अन्यथा दण्डपुरुषादौ संयोगादिसम्बन्धाभावेपि स स्यात् इत्यलं संयोगादिसम्बन्धकल्पनाप्रयासेन । 'विरोध्यविरोधक प्रत्यय विशेषस्तु विशिष्ट वस्तुधर्ममेवालम्बते' इति वक्ष्यते समवायसम्बन्धनिराकरणप्रक्रमे । ततो विरोधस्य विचार्यमाणस्यायोगान्नानयोरसौ घटते । नापि वैयधिकरण्यम् ; निधिबोधे भेदाभेदयोः सत्त्वासत्त्वयोर्वा एकाधारतया प्रतीयमानत्वात् । नाप्युभयदोष:; चौर [पार] दारिकाभ्यामचौरपारदारिकवत् जैनाभ्युपगत वस्तुनो जात्यन्तरत्वात् । न खलु भेदाभेदयोः सत्त्वासत्त्वयोर्वाऽन्योन्यनिरपेक्षयोरेकत्वं जनरभ्युपगम्यते येनायं दोषः, विशेषण भाव रूप सम्बन्ध से विरोध सम्बद्ध है, ऐसा तीसरा पक्ष कहना भी जमता नहीं, क्योंकि सम्बन्धान्तर असम्बद्ध वस्तु में विशेषणभाव होना भी असम्भव है, यदि असम्बद्ध वस्तुमें विशेषण भाव बनता तो दण्ड और पुरुष आदि में संयोगादि सम्बन्ध के नहीं होने पर विशेषण भाव हो सकता था। अतः विरोध के विषय में संयोगादि सम्बन्ध को कल्पना करने से अब बस हो । विरोध्य-विरोधक का ज्ञान विशेष विरोध कहलाता है ऐसा जो आपका कहना है वह तो विशिष्ट वस्तुधर्मका ही अवलम्बन लेता है, अर्थात् ऐसा लक्षण वाला विरोध वस्तु से अव्यतिरिक्त हो ठहरता है, इस विषय में समवाय सम्बन्ध का निराकरण करते समय आगे कहने वाले हैं। इस प्रकार विरोध विचार के अयोग्य है अतः भेद अभेद या सत्व असत्व इत्यादि एकत्र रहने में विरोध आता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता है । भेद और अभेद, या सत्व असत्व इत्यादि धर्मों को एकत्र मानने में वैयधिकरण्य नामा दोष पाता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, भेद-अभेद या सत्व-असत्व एक ही आधार में साक्षात् ही प्रतीत हो रहे हैं। अभेद-भेद आदि को एकत्र मानने में उभयदोष भी नहीं आता, क्योंकि भेद और अभेद जिस वस्तु में रहते हैं वह वस्तु एक पृथक् ही जाति वाली है जैसे कि चोरी करने वाले और परदारा सेवन करने वाले पुरुष से अचोर अपारदारिक पुरुष पृथक कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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