SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे वस्तुस्वरूपं गृह्णाति तथाविधमेवाभ्युपगन्तव्यम्, यत्रात्यन्तभेदग्राहकं तत्तत्रात्यन्तभेदो यथा घटपटादौ, यत्र पुनः कथंचिद्भेदग्राहकं तत्र कथंचिभेदो यथा तन्तुपटादाविति । अत: कालात्ययापदिष्टं चेदं साधनं यथानुष्णोग्निद्रव्यत्वाज्जलवत् । न च घटादौ तथाविधभेदेनास्य व्याप्त्युपलम्भात्सर्वत्रात्यन्तभेदकल्पना युक्ताः क्वचित्तार्णत्वादिविशेषाधारेणाग्निना धूमस्य व्याप्त्युपलम्भेन सर्वत्राप्यतस्तथाविधविशेषसिद्धिप्रसङ्गात् । अथ तार्णत्वादिविशेष परित्यज्य सकलविशेषसाधारणमग्निमात्रं धूमात्प्रसाध्यते । नन्वेवमत्यन्तभेदं परित्यज्यावयवावयव्यादिष्वपि भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वाभ्रेदमात्रं किं न प्रसाध्यते विशेषाभावात् ? होगा, जैसे तन्तु और वस्त्र में कथंचित् भेद दिखायी देता है अतः इनमें कथंचित भेद मान सकते हैं, सर्वथा नहीं। इसप्रकार अवयव अवयवी आदि में सर्वथा भेद है ऐसा कहना बाधित होने से "भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वात्" हेतु कालात्ययापदिष्ट भी हो जाता है, अग्नि ठंडी है, क्योंकि वह द्रव्य है, इसतरह के अनुमान में जैसे द्रव्यत्वात् हेतु कालात्ययापदिष्ट होता है वैसे ही भिन्न प्रमाणग्राह्यत्व हेतु है। घट पट आदि पदार्थों में भी अत्यन्त भेद सिद्ध नहीं है, जिससे कि उनमें अत्यन्त भेद की व्याप्ति देखकर सब जगह तन्तु वस्त्रादि में भी अत्यन्त भेद की कल्पना कर सके। यदि ऐसी कल्पना करते हैं तो कहीं-कहीं तृण की प्रादि विशेष आधार वाली अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति देखी जाती है उसे देख अन्य सब जगह भी अग्नि के साथ वैसी व्याप्ति करनी होगी ? किन्तु ऐसा नहीं है । शंका-तृणों की अग्नि, कंडे की अग्नि इत्यादि विशेष को छोड़कर सम्पूर्ण विशेषों में रहनेवाली साधारण अग्निमात्र को ही धूमहेतु से सिद्ध किया जाता है ? समाधान-बिलकुल इसीतरह अवयव अवयवी आदि में अत्यन्त भेद को छोड़कर भिन्नप्रमाणग्राह्यत्व हेतु द्वारा भेद मात्र को क्यों न सिद्ध किया जाय ? उभयत्र समानता है, कोई विशेषता नहीं है । अवयवी अवयव आदि में अत्यन्त भेद सिद्ध करने के लिये घट पटवत् ऐसा दृष्टान्त दिया है वह भी साध्य विकल होने से कार्यकारी नहीं है, क्योंकि घट और पट में भी अत्यन्त भेद सिद्ध नहीं है, उनमें कथंचित ही भेद सिद्ध होता है, कैसे सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy