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________________ अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः १६५ दृष्टान्तश्च साध्यविकलत्वान्न साधनाङ्गम् अत्यन्तभेदस्यात्राप्यसिद्धः । तदसिद्धिश्च सद्रूपतया घटादीनामभेदात् । साधनविकलश्च ; स्फारिताक्षस्यैकस्मिन्नप्यध्यक्षे घटादीनां प्रतिभाससम्भवात् । न च प्रतिविषयं विज्ञानभेदोभ्युपगन्तव्य:; मेचकज्ञानाभावप्रसङ्गात् । घटादिवस्तुनोप्ये कविज्ञानविषयस्वाभावानुषङ्गाच्च; प्रत्राप्यूर्वाधोमध्यभागेषु तद्भेदस्य कल्पयितु शक्त्यत्वात् । तथा चावयविप्रसिद्धये दत्तो जलाञ्जलिः । प्रतीतिविरोधोन्यत्रापि न काकक्षितः । विरुद्धधर्माध्यासोपि धूमादिनानैकान्तिकत्वान्नावयवावयविनोरात्यन्तिकं भेदं प्रसाधयति । न खलु स्वसाध्येतरयोर्गमकत्वागमकत्वलक्षणविरुद्धधर्माध्यासेपि धूमो भिद्यते । नन्वत्रापि सामग्री बताते हैं-घट सत्रूप है और पट भी सत्रूप है, इस सत्व की अपेक्षा घट और पट में भेद नहीं है । तथा यह घट पटवत् दृष्टान्त साधन विकल ( हेतु के धर्म से रहित ) भी है, आंख खोलते ही एक साथ एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान में घट पट आदि अनेक पदार्थों का प्रतिभास होता हुआ देखा जाता है, अतः घटादिक भिन्नप्रमाणग्राह्य ही है ऐसा सिद्ध नहीं होता। वैशेषिक प्रत्येक विषय में भिन्न-भिन्न ही ज्ञान होते हैं ऐसा मानते हैं किन्तु वह ठीक नहीं है, यदि ऐसा मानेंगे तो मेचकज्ञान ( अनेक वर्ण हरित, पीत आदि का चितकबरा ज्ञान ) का अभाव होगा, क्योंकि उस एक ही ज्ञान में अनेक विषय हैं । तथा घट आदि वस्तु भी एक ज्ञान का विषय नहीं हो सकेगो, क्योंकि इसमें भी ऊपर का भाग, मध्य भाग, अधोभाग इसतरह भिन्न भिन्न विषय की कल्पना कर सकते हैं और कह सकते हैं कि एक ही ज्ञान इन तीन भागों को नहीं जान सकता उनमें से प्रत्येक के लिये पृथक्-पृथक् ज्ञान चाहिये इत्यादि । इसतरह तो आप वैशेषिक को अवयवी की प्रसिद्धि के लिये जलांजलि देनी पड़ेगी। अर्थात् एक ज्ञान से अवयवी का ग्रहण नहीं हो सकने से उसका अभाव ही होवेगा। यदि कहा जाय कि एक ही घट आदि अवयवी में और उसके ग्राहक ज्ञान में भेद मानने में प्रतीति से विरोध प्राता है तो यही बात घट और पट अथवा तन्तु और पट आदि में है, वे भी एक ज्ञान द्वारा साक्षात् प्रतीत हो रहे हैं, उनको भी भिन्न प्रमाण द्वारा ग्राह्य मानना प्रतीति से विरुद्ध होता है। अवयव और अवयवी में विरुद्ध धर्माध्यास होने से अत्यन्त भेद है ऐसा वैशेषिक ने कहा किन्तु वह विरुद्ध धर्माध्यास हेतु भी धूमादि हेतु से अनैकान्तिक होता .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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