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________________ अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववाद! १६३ विशेषापेक्षया तु विषयभेदः; कथमेवमेकान्ताभ्युपगमो न विशोर्येत ? गुणगुण्यादिष्वप्यतस्तद्वत्कथञ्चिद्भेदाभेदप्रसिद्ध भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वस्य विरुद्धत्वम् । ___एकान्ततोऽवयवावयव्यादीनां भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वं चासिद्धम् ; 'पटोयम्' इत्याद्युल्लेखेनाभिन्नप्रमाणग्राह्यत्वस्यापि सम्भवात् । ननु 'पटोयम्' इत्याद्य ल्लेखेनावयव्येव प्रतिभासते नावयवास्तत्कथमभिन्नप्रमाणग्राह्यत्वम् ; इत्यप्यपेशलम् ; तभेदाप्रसिद्धः । तन्तव एव ह्यातानवितानीभूता अवस्थाविशेषविशिष्टा: 'पटोयम्' इत्याधु ल्लेखेन प्रतिभासन्ते नान्यस्ततोर्थान्तरं पट: । प्रमाणं हि यथाविधं शंका-वृक्ष की अपेक्षा उन पूर्वोत्तरवर्ती ज्ञानों में एक विषयपना है किन्तु सामान्य और विशेष की अपेक्षा तो विषय भेद है ? समाधान-तो फिर आपका वह एकान्त आग्रह कैसे नहीं खण्डित होगा कि जिनमें भिन्न प्रमाण ग्राह्यत्व है वे सर्वथा भिन्न ही है । गुण और गुणो इत्यादि वस्तुओं में भिन्न प्रमाण ग्राह्यत्व होता है तो भी वे कथंचित भेदाभेदात्मक हुआ करते हैं, अतः जिनमें भिन्न प्रमाण ग्राह्यत्व हो वे सर्वथा भिन्न हैं ऐसा हेतु विरुद्ध पड़ता है। वैशेषिक ने तन्तु और वस्त्र आदि अवयव अवयवी में एकान्त से भिन्न प्रमाण द्वारा ग्राह्यपना बतलाया किन्तु यह प्रसिद्ध है “पटोऽयम्" यह पट है, इसप्रकार के एक ही प्रमाण द्वारा अवयव और अवयवो का ( तन्तु और वस्त्र ) ज्ञान होता देखा जाता है। शंका-“पटोऽयं" यह पट है इत्यादि उल्लेखी जो ज्ञान है वह केवल अवयवी का प्रतिभास कराता है न कि अवयवों का, अतः अवयवी आदि अभिन्न एक प्रमाण द्वारा ग्राह्य कहां हुए ? समाधान-यह बात असत् है, अवयव और अवयवी में भेद की सिद्धि नहीं है, जो तन्तु रूप अवयव होते हैं वे ही आतान वितानरूप होकर ( लंबे चौड़े होकर ) अवस्थाविशेष वाले हो जाते हैं तो यह वस्त्र है इस तरह के उल्लेख से प्रतीत होते हैं, इन तन्तुनों से पृथक् पट नहीं है, प्रमाण जिस तरह से वस्तु के स्वरूप को ग्रहण करता है उसीतरह से उसके स्वरूप को मानना चाहिए, जहां पर अत्यन्त भेद को ग्रहण करता है वहां पर अत्यन्त भेद मानना होगा, जैसे घट और पट में अत्यन्त भेद है। तथा जहां पर प्रमाण कथंचित भेद को ग्रहण करता है वहां पर कथंचित भेद मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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