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________________ अर्थस्य सामान्य विशेषात्मकत्ववाद: १८७ किञ्च तादात्म्यम्' इत्यत्र कि स पट प्रात्मा येषां तन्तूनां तेषां भावस्तादात्म्यमिति विग्रह: कर्तव्यः, ते वा तन्तवः आत्मा यस्य पटस्य, स च ते आत्मा यस्येति वा ? प्रथमपक्षे पटस्यैकत्वात्तन्तूनामप्ये कत्वप्रसङ्ग, तन्तूनां वाऽनेकत्वात्पटस्याप्यनेकत्वानुषङ्गः। अन्यथा तत्तादात्म्यं न स्यात् । द्वितीयविकल्पेप्ययमेव दोषः। तृतीयपक्षश्चाविचारितरमणीयः; तद्वयतिरिक्तस्य वस्तुनोऽसम्भवात् । न हि तन्तुपटव्यतिरिक्त वस्त्वन्तरमस्ति यस्य तन्तुपटस्वभावतोच्येत । न च तन्तुपटादीनां कथञ्चिभेदाभेदात्मकत्वमभ्युपगन्तव्यम् ; संशयादिदोषोपनिपातानुषङ्गात् । 'केन खलु स्वरूपेण तेषां भेद : केन चाभेद:' इति संशय : । तथा 'यत्राभेदस्तत्र भेदस्य पटत्वं" ऐसी षष्ठी विभक्ति और तद्धित का त्व प्रत्यय भी या नहीं सकता अतः इनमें अभेद मानना अशक्य है । "तादात्म्यम्" इस पद का अर्थ भी किसप्रकार करना ? सः पट: स्वरूपयेषांतेषां भावः वह पट है स्वरूप जिन तंतुओं का वह तदात्म तथा तदात्म का भाव तादात्म्य, इसतरह का विग्रह है, अथवा वे तन्तु हैं स्वरूप जिस पट का, उसे तदात्म कहे, याकि वस्त्र और तन्तु हैं स्वरूप ( आत्मा ) जिसका उसे तदात्म कहते हैं ? प्रथमपक्ष कहो तो पट एक रूप होने से तन्तु भी एकरूप बन जायेंगे, अथवा तन्तु अनेक होने से वस्त्र भी अनेक बन जायेंगे ? क्योंकि इनका परस्पर में अभेद है, अन्यथा तन्तु और वस्त्र में तादात्म्य नहीं माना जा सकता। द्वितीय पक्ष-तन्तु हैं स्वरूप जिस वस्त्र का उसे तदात्म कहते हैं और तदात्म का भाव ही तादात्म्य है ऐसा कहे तो यही दोष है कि वस्त्र अनेक रूप अथवा तन्तु एक रूप बन जाने का प्रसंग पाता है। तीसरा पक्ष तो सर्वथा अविचारित रमणीय है क्योंकि वस्त्र और तन्तु को छोड़कर अन्य स्वरूप नहीं है। वस्त्र में वस्त्रपना और तन्तु इनसे अतिरिक्त तीसरी वस्तु नहीं है जो इन दोनों का स्वभावपना बने । यदि तन्तु और वस्त्र इत्यादि पदार्थों में कथंचित भेद और कथंचित अभेद मानते हैं, तो इस पक्ष में संशय, अभाव आदि दोष आते हैं, आगे इसी का खुलासा करते हैं-भेदाभेदात्मक वस्तु में असाधारण आकार से निश्चय नहीं हो सकने के कारण किस स्वरूप से भेद है और किस स्वरूप से अभेद है ऐसा संशय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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