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________________ अकाट्य युक्तियों द्वारा सिद्ध किया है कि जगत् पदार्थ सामान्य विशेषात्मक ही हुआ करते हैं ऐसे पदार्थों को प्रमाण ज्ञान जानता है इससे विपरीत केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक पदार्थ मानना एवं उसको प्रमाण का विषय बतलाना विषयाभास है । प्रमाण से प्रमाण के फल को सर्वथा पृथक् या सर्वथा अपृथक् मानना फलाभास है । इस प्रकार इन प्राभासों का इस प्रकरण में वर्णन है । जय पराजय व्यवस्था : वस्तु तत्व का स्वरूप बतलाने वाला सम्यग्ज्ञान प्रमाण होता है, प्रमाण के बल से ही जगत् के यावन्मात्र पदार्थों का बोध होता है । जो सम्यग्ज्ञान नहीं है उससे वस्तु स्वरूप का निर्णय नहीं होता । जिन पुरुषों का ज्ञान आवरण कर्म से रहित होता है वे ही पूर्णरूप से तत्त्व को जान सकते हैं, वर्तमान में ऐसे ज्ञानधारी पुरुषों का प्रभाव है । अत: वस्तु के स्वरूप में विविध मत प्रचलित हुए हैं। भारत में सांख्य, मीमांसक, यौग आदि अनेक मत हैं, वे स्व स्वमत को सत्य कहते हैं। कुछ शताब्दी पूर्व इन विविध मत वालों में परस्पर में अपने अपने मत की सिद्धि के लिये वाद हुआ करते थे । जो तक अनुमान आदि द्वारा अपने मत को सिद्ध करता उसका मत जय माना जाता मौर अन्य वादी का मत पराजय, वाद के चार अंग हैं, बादी जो सभा में सबसे पहले अपना पक्ष उपस्थित करता है-प्रतिवादी जो वादी के पक्ष को प्रसिद्ध करने का प्रयत्न करता है, साम्यवाद को सुनने-देखने वाले एवं प्रश्न कर्ता मध्यस्थ महाशय ! सभापति वाद में कलह नहीं होने देता, दोनों पक्षों को जानने वाला एवं जय पराजय का निर्णय देने वाला सज्जन पुरुष सभापति कहलाता है। वादी और प्रतिवादी वे ही होने चाहिए जो प्रमाण और प्रमाणाभास का स्वरूप भली प्रकार से जानते हों, अपने अपने मत में निष्णात हो एव अनुमान प्रयोग में अत्यन्त निपुण हो, क्योंकि वाद में अनुमान प्रमाण द्वारा ही प्रायः स्वपक्ष को सिद्ध किया जाता है । वादी प्रमाण और प्रमाणाभास को अच्छी तरह जानता हो तो अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए सत्य प्रमाण उपस्थित करता है, प्रतिवादी यदि न्याय के क्रम का उल्लंघन नहीं करता और उस प्रमाण के स्वरूप को जानने वाला होता है तो उस सत्य प्रमाण में कोई दूषण नहीं दे पाता और इस तरह वादी का पक्ष सिद्ध हो जाता है तथा प्रागे भी प्रतिवादी यदि कुछ प्रश्नोत्तर नहीं कर पाता तो वादी की जय भी हो जाती है तथा वादी यदि प्रमाणादि को ठीक से नहीं जानता तो स्वपक्ष को सिद्ध करने के लिए प्रमाणाभास असत्य प्रमाण उपस्थित करता है, तब प्रतिवादी उसके प्रमाण को सदोष बता देता है अब यदि वादी उस दोष को दूर कर देता है तो ठीक है अन्यथा उसका पक्ष प्रसिद्ध होकर भागे उसका पराजय भी हो जाता है । कभी ऐसा भी होता है कि वादी सत्य प्रमाण उपस्थित करता है तो भी प्रतिवादी उसका पराजय करने के लिए उस प्रमाण को दूषित ठहराता है, उस दोष का यदि परिहार कर पाता है तो ठीक वरना पराभव होने की संभावना है तथा कभी ऐसा भी होता है कि वादी द्वारा सही प्रमाण युक्त पक्ष उपस्थित किया है तो भी प्रतिवादी अपने मत को अपेक्षा या वचन चातुर्य से उस प्रमाण को सदोष बताता है ऐसे अवसर पर भी वादी यदि उस दोष का परिहार करने में असमर्थ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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