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________________ (१५) दिशाद्रव्यवाद: वैशेषिक ने दिशा नाम का एक पृथक् द्रव्य माना है, किन्तु यह सर्वथा हास्यास्पद है। प्राकाश प्रदेशों में ही सूर्य के उदयादि निमित्त से पूर्व प्रादि दिशा कल्पित की जाती है, जैसे कि देश आदि का विभाग करते हैं । आत्मद्रव्यवाद: प्रात्मा को नित्य सर्व व्यापी सिद्ध करने का प्रयास भी व्यर्थ है। क्रियाशील होने से प्रात्मा व्यापक नहीं माना जा सकता । एक भव से अन्य भव में गमन रूप संसार तब बन सकता है जब प्रात्मा को सक्रिय एवं अव्यापक स्वीकार किया जाय। प्रात्मा को सर्व व्यापी मानने वाले वैशेषिक इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते कि यह भवांतर गमनरूप क्रिया कौन करता है। दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा व्यापक है तो उसका जगत् के सर्व परमाणों के साथ संयोग है और उस कारण सब परमाणु द्रव्यों में क्रिया संभव है इससे एक जीव का न जाने कितना बड़ा शरीर बन जाय ? किन्तु ऐसा कुछ होता नहीं प्रतः प्रात्मा के सर्वगतत्व का निरसन हो जाता है। प्रात्मा को निरंश कथमपि नहीं मान सकते, क्योंकि संपूर्ण शरीर में सुखादि का संवेदन पाया जाता है । इसप्रकार प्रात्मा को सर्वथा नित्य मान लेने पर संसार और मुक्त अवस्था सिद्ध नहीं होती। व्यापक मानने पर सक्रियत्वगति से गत्यंतर गमन सिद्ध नहीं होता। निरंश मान लेने पर शरीर के विभिन्न भागों में एक साथ व्याधि आदि का वेदन और अवेदन रूप भेद सिद्ध नहीं हो सकता अत : तर्क एवं पागम से यही सिद्ध होता है कि प्रात्मा कथंचित् नित्यानित्यात्मक, सक्रिय अव्यापक एवं सांश है। गुणपदार्थवाद : परवादी वैशेषिक ने गुरण नाम का एक पदार्थ मानकर उसके चौबीस भेद प्रतिपादित किये हैं-रूप, रस, गंध स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द । गुण को भिन्न पदार्थ मानना अयुक्त है क्योंकि सर्वदा द्रव्याश्रित है अथवा यों कहिये कि गुणों का पिण्ड ही द्रव्य होता है, गुण को पृथक् करके द्रव्य को देखा जाय तो कुछ भी प्रतीत नहीं होगा। इन गुणों के चौबीस भेदों में से रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेह, गुरुत्व, ये पांच पुद्गल द्रव्य स्वरूप हैं अर्थात् ये पुद्गलात्मक जड़ द्रव्य के गुण हैं । बुद्वि ज्ञानात्मक होने से आत्मा का गुण है । सुख भी प्रात्मा का गुण है। इच्छा, द्वेष, मोह जनित प्रात्म विकार है न कि गुण । दु:ख भी असाताजन्य आत्म विकार है। संख्या, परिमाण भी वस्तु का स्वरूप है अर्थात् संख्येय से संख्या भिन्न नहीं हुअा करती। परिमारण वस्तु का प्रमाण या माप है और कुछ नहीं । पृथक्त्व भी गुण नहीं किन्तु वस्तु स्वयं ही अपने को अन्य वस्तु से पृथक् रखती है । प्रयत्न तो क्रिया को कहते हैं । इसीप्रकार संयोग, विभाग, द्रवत्व ये सब वस्तुओं के अवस्था विशेष हुअा करते हैं । परत्व अपरत्व में प्रापेक्षिक धर्म है । धर्म अधर्म ये पुण्य पाप स्वरूप हैं । शब्द तो पुद्गल द्रव्य को विभाव पर्याय है । इसप्रकार वैशेषिक मान्य गुणों का स्वरूप एव भेद सिद्ध नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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