SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४ ) अवयवी को निरंश मानना भी हास्यास्पद है एक निरंश अवयवी अनेक अवयवों में किसप्रकार रह सकता है ? तथा यदि अवयवों से अवयवी सर्वथा भिन्न है तो उसका ग्रहण किसप्रकार होगा ? कतिपय अवयवों के ग्रहण करने पर ही अवयवो प्रतीत होता है ऐसा गलत है, जल में हाथी प्राधा डूबा हुआ है उसके कुछ अवयव प्रतीत होते हैं किन्तु पूर्ण अवयवी तो प्रतीत होता नहीं ? संपूर्ण अवयवों का ग्रहण भी हमारे इन्द्रिय ज्ञान के लिये प्रशक्य है। अतः अवयवों से अवयवी कथंचित भेदाभेद स्वरूप स्वीकार किया है। प्राकाश द्रव्य विचार : आकाश द्रव्य की सिद्धि शब्द रूप हेतु से होती है ऐसा वैशेषिक कहते हैं, शन्द कर्ण द्वारा प्रतीत होते ही हैं, वे शब्द गुण स्वरूप हैं और गुणों को प्राश्रय की आवश्यकता होती है शब्द रूप गुण का जो प्राश्रय है वही आकाश है । शब्द रूप हेतु द्वारा सिद्ध होने वाला प्राकाश द्रव्य सर्वथा एक, नित्य और व्यापक है । वैशेषिक की यह मान्यता प्रसत् है, शब्दरूप हेतु से आकाश की सिद्धि प्रसंभव है, क्योंकि शब्द स्पर्शादि युक्त है और आकाश स्पर्शादि से रहित, शब्द गुणरूप भी नहीं है वह द्रव्य ही है, जिसमें गुण प्राश्रित हो वह द्रव्य है, शब्द में स्पर्शादि गुण विद्यमान है अतः वह द्रव्य ही है। शब्द क्रियाशील भी है अतः द्रव्य है। यदि शब्द अाकाश का गुण होता तो हमारे इन्द्रिय गम्य नहीं होता तथा शब्द व्यापक नहीं है जिस द्रव्य का जो गुण होता है वह उस द्रव्य में सर्वत्र रहता है, आकाश सर्वत्र है किन्तु शब्द सर्वत्र नहीं है । शब्द नष्ट होता है, किन्तु अाकाश नित्य है। इसप्रकार अनेक हेतुओं से सिद्ध होता है शब्द प्राकाश का गुण नहीं है, अत: उसके द्वारा आकाश की सिद्धि नितरां असंभव है। आकाश की सिद्धि तो उसके अवगाहना गुण द्वारा होती है अर्थात् संपूर्ण पदार्थों को एक साथ अवगाहन [ स्थान-प्राधार ] देना रूप कार्य को अन्यथानुपपत्ति से अमूर्त व्यापक रूप आकाश द्रव्य सिद्ध होता है। कालद्रव्य: वंशेषिक काल द्रव्य को आकाशवत् व्यापक एवं एक मानते हैं, किन्तु उनका यह कथन सिद्ध नहीं होता है। काल द्रव्य न अाकाशवत् व्यापक है और एक द्रव्यरूप है । यदि काल द्रव्य एक रूप होता तो कुरुक्षेत्र और लंका के देश में होनेवाला दिवसादि का भेद नहीं हो सकता था। काल द्रव्य तो प्रत्येक प्रकाश प्रदेश पर एक एक कालाणु रूप से अवस्थित है। अर्थात् काल द्रव्य की संख्या असंख्यात है। काल द्रव्य को निरंश माने तो "योगपद्यएक साथ हुआ" इसप्रकार का ज्ञान संभव नहीं होगा। इसप्रकार काल द्रव्य निरंश एक नित्य व्यापक न होकर अनेक व्यापक सिद्ध होता है । यह काल द्रव्य द्रव्यदृष्टि से नित्य है किन्तु पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है । निरंश इसलिये है कि इसके एक एक प्रदेश ही एक एक काल द्रव्य है । व्यवहार काल, मुख्य काल ऐसे इस काल के दो भेद हैं एवं भूत वत्तंमान भावी की अपेक्षा तीन भेद हैं । मीमांसक काल द्रव्य को नहीं मानते उनको प्राचार्यदेव ने समझाया है चिरक्षिप्रादिका व्यवहार क्रिया निमित्तक नहीं है अपितु काल द्रव्य निमित्तक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy