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________________ १३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे यद्यपेक्ष्य तयोरेकमन्यत्रासी प्रवर्तते । उपकारी ह्यपेक्ष्यः स्यात्कथं चोपकरोत्यसन् ।।६।। यद्य कार्थाभिसम्बन्धात्कार्यकारणता तयोः । प्राप्ता द्वित्वादिसम्बन्धात्सव्येतरविषाणयोः ।।१०।। द्विष्ठो हि कश्चित्सम्बन्धो नातोन्यत्तस्य लक्षणम् । भावाभावोपधिर्योगः कार्यकारणता यदि ॥११।। योगोपाधी न तावेव कार्यकारणतात्र किम् । भेदाच्चेन्नन्वऽयं शब्दो नियोक्तारं समाश्रितः ।।१२।। उन कार्य कारणोंमें सापेक्ष भाव है तो उनमें से एक अन्यत्र कैसे प्रवृत्त हो ? उपकारीपना तो दोनों एक साथ रहे तो बने, जब कार्य और कारण में से वर्तमान में एक असत् है तब उपकार किसप्रकार कर सकता है ।।६।। यदि कहा जाय कि पृथक समयों में अवस्थित ऐसे कार्य कारणभूत पदार्थों में एकार्थाभिसंबंध होने से कार्य कारण रूप उपकारकपना बन जाता है तब तो द्वित्व आदि के अभिसंबंध से दांये बांये सींगों में भी कार्य कारण भाव मानना पड़ेगा ॥१०॥ कोई भी संबंध हो वह दो पदार्थों में होता है, द्विष्ठ ही उसका लक्षण है, अन्य लक्षण नहीं है। तथा भावाभाव के उपाधि का योग अर्थात् इसके होने पर ( कारण के ) होना और न होने पर नहीं होना यही कार्य कारणता है ऐसा कहा जाय तो ॥११॥ उसी भावाभाव की उपाधि के योग को कार्यकारण संबंध कहना चाहिये अर्थात् इससे पृथक् कोई संबंधनामा वस्तु नहीं है ऐसा मानना चाहिये । इस पर शंका होवे कि संबंध अनेक भेद वाला होता है अतः यह निश्चय किस प्रकार होगा कि यहां विवक्षित प्रकरणमें कार्य कारणता ही भावाभाव वाच्य से कही जा रही है इत्यादि ? सो इसका उत्तर यह है कि इस तरह का निश्चय अर्थात् शब्द प्रयोग तो प्रयोक्ता के अधीन है ।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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